आईये कुछ बातों पर विचार करें।सबसे पहले तो नित्यानुष्ठान ना करने के लिये भगवन्नाम का ओट लेना बहुत बड़ा अपराध है। जिन भगवानका नाम हम रट रहें है क्या उनकी आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म नहीं? भगवान स्वयं कह रहें हैं -
श्रुतिस्स्मृति: ममैवाज्ञा यस्तामुल्लङ्घ्य वर्तते |
आज्ञाच्छेदी ममद्रोही मद्भक्तोsपि न वैष्णव: || (विष्णुधर्म)
(श्रुति और स्मृति यह मेरे आदेश है जो इसका पालन नहीं करते हैं वे विश्वासघाती - मेरे द्रोही हैं। चाहे वें मेरी भक्ति करें तो भी उनको वैष्णव नहीं मानना चाहिये।)
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥ (रामचरितमानस)
और तो और प्रपन्न-शरणागत के लिये भगवदाज्ञा का पालन करना ही मुख्य हैं - अग्या सम न सुसाहिब सेवा (रामचरितमानस)। भगवदाज्ञा का पालन करना यानि उनके अनुकूल रहना और प्रपन्न के लिये तो सर्वप्रथम निर्दिष्ट यहीं है - आनुकूलस्य संकल्पः (अहिर्बुधन्य संहिता)।
दुसरी बात जो कि गोस्वामीपाद श्रीतुलसीदासजी स्वयं कह रहें हैं -
नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गये कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥(दोहावली)
भगवान श्रीरामका नाम अंक है और सब साधन शून्य (०) हैं। अंक न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं आता, परंतु शून्य के पहले अंक आने पर वे दस गुने हो जाते हैं, अर्थात राम-नाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दस गुना अधिक लाभदायक हो जाते हैं, परंतु राम-नाम के बिना जो साधन होता है वह किसी भी तरह का फल प्रदान नहीं करता।
इससे यह स्पष्ट हैं कि श्रीरामनाम के ही परमोपासक गोस्वामीजी अन्य साधन-कर्मों की उपेक्षा करने के पक्षमें बिल्कुल नहीं हैं। विशेष जानकारी के लिये रामचरितमानसके उत्तरकाण्ड का अध्ययन करें। हाँ गोस्वामीजी निरस कर्मकाण्ड को भगवन्नाम से जोड़कर हमारे सभी कृत्यों को उपासनात्मक बनाने के पक्ष में जो कि गीताचार्य भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कह रहें हैं -
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ भी स्वतःप्राप्त कर्म करते हो, जो खातें हो, जो कुछ श्रौत या स्मार्त यज्ञरूप हवन करते हो, जो कुछ (स्वर्ण,अन्न, घृतादि वस्तु) सत्पात्रोंको दान देते हो और जो कुछ तपका आचरण करते हो वह सब मुझे समर्पित कर दो।)
अब एक और महत्पुर्ण बात पर ध्यान दीजिये। भगवन्नामजप-कीर्तन तब ही सफल है जबतक हमनें नामापराधसे बचकर भगवन्नाम का आश्रय किया। इन दश नामापराधमें इन तीन पर विचार कीजिये -
(१) अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां (वेद-शास्त्र-सन्त आज्ञा का पालन नहीं करना)।
(२) विहितत्यागौ (यह सोचना की नामजप करतें हैं अतः सन्ध्या-पूजन-तर्पण आदि कार्यों का त्याग कर देना)
(३) धर्मान्तरैः साम्यं (भगवन्नामाश्रय को अन्य पूण्यकर्मों के समान मानना तथा तूलना करना। क्योंकि भगवन्नामाश्रय से श्रेष्ठ कोई भी यज्ञ- तीर्थ आदि नहीं हो सकते। इसलिये भगवन्नाम को सर्वोपरी जानकर सन्ध्या-यज्ञादि नित्यानुष्ठान की तुलना करनी ही नहीं चाहिये।)
तो मित्रों सौ बात की एक बात भगवन्नाम का आश्रय लेकर अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों से ना भागें, नियमपूर्वक श्रद्धासहित नित्य कर्मानुष्ठान (सन्ध्यावन्दन, अग्निहोत्र, देवपूजन, वेदादि शास्त्रों क अध्ययन, पितृ तर्पण आदि) करें। भगवन्नाम तो साक्षात भगवान हैं! भगवन्नामसें भगवानकी अनुभूति करें। भक्त-प्रपन्न को तो अपने सभी कार्य भगवत्प्रीत्यर्थ करने चाहिये।
धर्म सम्राट करपात्री स्वामी की जय हो
संभव हो तो श्रीकरपात्री स्वामीजी द्वारा लिखित "संकीर्तन मीमांसा" नामक ग्रन्थ को एकबार अवश्य पढ़ लेंवे।
हमारे अद्वैत वेदांत परंपरा के अनेक ऋषि मुनि पूर्व आचार्य वर्तमान आचार्य से आप बड़े प्रवक्ता हो गए
आप अद्वैत वेदांत के इतने बड़े आचार्य हो गए कि आप कह रहे हैं कि सनातन धर्म कर्मकांड का कोई महत्व नहीं है अब इतने बड़े हो गए
जो व्यक्ति स्वयं स्वयंभू स्वघोषित आचार्य बन बैठा है ना शास्त्रों का ज्ञान है ना धर्म के ज्ञान है और अपने आप को आचार्य बनके सुशोभित हो रही है
आपके इस वीडियो में आप मनुस्मृति और आप्रामाणिक साबित करने का प्रयास कर रहे हैं
जो व्यक्ति स्वयं स्वघोषित आचार्य बना बैठा है
अद्वैत वेदांत के नाम पर पाखंड बनाना बंद करिए ।।
बस कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करें ,।।
धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो।।
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