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*ख़ुद तलाशना… क़ातिल अपना…*
*और… फिर कत्ल होना…*

*इसी फ़नकारी… को…*
*बदकिस्मती से… इश्क कहते हैं...*
💕


मैं कभी खुद को इस भ्रम में नहीं रखा कि मेरी कमी उसको उदास करेगी
यदि आप बेहतर हैं, तो आपसे भी बेहतरीन ढूंढ लिए जाते हैं✌️😌


हम तुम्हे लिखते है💬
आप पढ़ पाओगी क्या

हर जगह तुम्हारी बाते करते है
आप सुन पाओगी क्या

हम कुछ कहना चाहते है
बिन कहे आप, समझ पाओगी क्या

❤️❤️💛❤️❤️


तुम्हारे अक़्स से भी मैं तुम्हे पहचान जाऊँगा
तुम्हारे खामोश लफ्ज़ो की बाते भी मैं जान जाऊँगा
अगर हो तुमको बेवफाई का डर तो बता दो मुझको
तुम्हारे वास्ते मैं ज़माने कों भी भूल जाऊँगा


नया सवेरा नयी किरण के साथ, 🎊
नया दिन एक प्यारी सी मुस्कान के साथ, 🎊
आपको नया साल 🎉 मुबारक हो ढेर सारी सुभकामनाए के साथ…
हैप्पी न्यू ईयर ! 🥳 🤗


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🚩  *गाँव-शहर*🚩

तेरी बुराइयों को हर अखबार कहता है,
और तू मेरे गाँव को गँवार कहता है...
ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है,
तू चुल्लू भर पानी को वाटर पार्क कहता है...
थक गया है हर शख्स काम करते करते,
तू इसे अमीरी का बाजार कहता है...
गाँव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है...
मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहा है,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है...
जिनकी सेवा में बिता देते सारा जीवन,
तू उन माँ-बाप को खुद पर बोझ कहता है...
वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है...
बड़े बड़े मसले हल करती यहां पंचायतें,
तू अँधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है...
बैठ जाते हैं अपने पराये साथ बैलगाड़ी में,
पूरा परिवार भी ना बैठ पाये उसे तू कार कहता है...
अब बच्चे भी बड़ों का आदर भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है...
जिंदा है आज भी गाँव में देश की संस्कृति,
तू भूल के अपनी सभ्यता खुद को तू शहर कहता है...
शहर घुमता है काले चश्मे लगाकर,
गाँव अब भी नजर मिला लेता है...
शहर बीमार होता है दवाओ से,
गाँव बीमारी में भी खुद को जीला लेता है...
शहर से घर को लोग खाली हाथ लौट जाते है,
गाँव में लोग बर्तन भी खाली नहीं लौटाते है...
नकली चेहरे गाँव में भी है मगर उनकी आँखे सच्ची है,
शहर कि भीतरी शोर से आटा चक्की कि पुक-पुक-पुक-पुक अच्छी है...
गाँव में देखो मुस्कुराती है फुल गोभियाँ,
शहर ने पहले बाल रंगे फिर हरी सब्जियाँ...
मेरी दुआ है खूब तरक्की करे यह ज़माना,
मगर गाँव कि लाश पर शहर न उगाना !!


लफ्ज़ अक्सर झूठ बोलते हैं,
शख्स कैसा है हरकतें बताती है।


"लौट आना"

सुख उन्हें भी कब मिला है
पर पिता ने यह लिखा है

देख तू चिंता न करना
इस समय धीरज सा धरना

है निशा का घोर डेरा
दूर दिखता है सवेरा

भूलना तुम यह नहीं पर
काल की गति है निरंतर

कुछ यहाँ रुकता नहीं है
कल कहीं था कल कहीं है

याद रखना बात मेरी
सुख का आना और देरी

यह नियम कब टूटता है
हर किसी पर बीतता है

प्राण है तू बस हमारा
आँख का ओझल सितारा

धैर्य तू क्यों खो रहा है
इस तरह क्यों रो रहा है

प्राण अपने खो पड़ूँगा
तू जो रोया रो पड़ूँगा

हारने का भय न करना
दुर्गमों की जय न करना

शैल ही तेरा पता हो
पर नदी को रास्ता हो

यह न ढूँढो क्या कहाँ है
मैं यहाँ हूँ माँ यहाँ है

बोझ यदि भारी लगे तो
यदि थकन हारी लगे तो

हर तपन को भूल जाना
दुख मिले तो लौट आना

दुख मिले तो लौट आना


साजिशें कुछ यूँ हुई हैं साथ हमारे
गमों में कोई नही रहा पास हमारे..

खंजर से जख्म जिसने भी दिए हमको
वो सभी लोग कभी थे खास हमारे..

हमसे जुबानी जंग ठीक नही साहब
तुम्हे जुबान नही आएंगे रास हमारे...!
🥀🍃🫣


मैं मुँह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई।

कुछ देर बाद खुद ही बोला, " ये भी पूछ लो क्यों जा रहा हूँ कानपुर?"

मेरे मुंह से जल्दी में निकला," बताओ, क्यों जा रहे हो?"

फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई।

उसने थोड़ा सा मुस्कराते हुवे कहा, " एक पुरानी दोस्त मिल गई। जो आज अकेले सफर पर जा रही थी। फौजी आदमी हूँ। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है । अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। " इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नही रह सकी मैं।

मग़र मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैने हिम्मत कर के फिर पूछा, " कहाँ है वो दोस्त?"

कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला," यहीं मेरे पास बैठी है ना"

इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ मे आ गया। कि क्यों उसने टिकिट नही लिया। क्योंकि उसे तो पता ही नही था मैं कहाँ जा रही हूं। सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था। जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए।

दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भिगनी ही थी।

बोला, "रो क्यों रही हो?"

मै बस इतना ही कह पाई," तुम मर्द हो नही समझ सकते"

वह बोला, " क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ इसलिए एक कवि और लेखक भी हूँ। सब समझ सकता हूँ।"

मैंने खुद को संभालते हुए कहा "शुक्रिया, मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए"

वह बोला, "प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी। कोई साथ नही दिखा तो आना पड़ा। कल ही रक्षा बंधन था। इसलिए बहुत भीड़ है। तुमको यूँ अकेले सफर नही करना चाहिए।"

"क्या करती, उनको छुट्टी नही मिल रही थी। और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए। राखी बांधने तो आना ही था।" मैंने मजबूरी बताई।

"ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नही कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी?"

"भाई शादी के बाद भाई रहे ही नही। भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नही।"

कह कर मैं उदास हो गई।

वह फिर बोला, "तो पति को तो समझना चाहिए।"

"उनकी बहुत बिजी लाइफ है मैं ज्यादा डिस्टर्ब नही करती। और आजकल इतना खतरा नही रहा। कर लेती हुँ मैं अकेले सफर। तुम अपनी सुनाओ कैसे हो?"

"अच्छा हूँ, कट रही है जिंदगी"

"मेरी याद आती थी क्या?" मैंने हिम्मत कर के पूछा।

वो चुप हो गया।

कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली, "सॉरी, यूँ ही पूछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं। कर सकते है ऐसी बात।"

उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ मे पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था। बोला, " याद तो नही आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था।"

कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला। मैं बोली "कभी सम्पर्क क्यों नही किया?"

वह बोला," डिस्टर्ब नही करना चाहता था। तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है।"

मैंने डरते डरते पूछा," तुम्हे छू लुँ"

वह बोला, " पाप नही लगेगा?"

मै बोली," नही छू ने से नही लगता।"

और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही।।

बहुत सी बातें हुईं।

जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था जिसे आखरी सांस तक नही बुला पाऊंगी।

वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया। रुका नही। बाहर से ही चला गया।

जम्मू थी उसकी ड्यूटी । चला गया।

उसके बाद उससे कभी बात नही हुई । क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नही लिए।

हांलांकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नही हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था। मगर रिश्तो की गरिमा बनाए रखना जरूरी था।

फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया। क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नही कर सकती। उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी। पता नही😔

लोक लाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नही कर सकी।

आज उससे मीले एक साल हो गया है आज भी रखबन्धन का दूसरा दिन है आज भी सफर कर रही हूँ। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं। जानबूझकर जर्नल डिब्बे का टिकिट लिया है मैंने।

अकेली हूँ। न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा।

एक सफर वो था जिसमे कोई हमसफ़र था।

एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफ़र है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है देखते है कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है...!!!❤️ ©Copy


इसे कहते है कसक ओर चाहत

ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जर्नल बोगी में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकिट नही मिला तो जर्नल डिब्बे में ही बैठना पड़ा। मगर यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना। जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था।

जिंदगी भी कमबख्त कभी कभी अजीब से मोड़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नही कर सकते ।

वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। ना मेरी तरफ देखा। ना पहचानने की कोशिश की। कुछ इंच की दूरी बना कर चुप चाप पास आकर बैठ गया। बाहर सावन की रिमझिम लगी थी। इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था। मगर इतना ज्यादा भी नही।

फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया।

चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सर पे मैने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मग़र मुझे नही दिखे।

मैंने जल्दी से सर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालो को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सर पे। मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए।

मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नही आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैने शीशा वापस बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई।

मग़र वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे।

मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, " सॉरी, भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था । थोड़ा सुख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा।" फिर वह अपने मोबाइल में लग गया। मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नही की। उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी ना जाने उसमे ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नही भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया। मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नही किया। पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूँ। शायद इसलिए नही पहचाना। मैं उदास हो गई।

जिस शख्स को जीवन मे कभी भुला ही नही पाई उसको मेरा चेहरा ही याद नही😔

माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नही मग़र पहचाने भी नही😔

शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हुँ जानती थी इसके साथ रहना मुश्किल है मग़र इसका मतलब यह तो नही कि अपने खयालो को अपने सपनो को जीना छोड़ दूं।

एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मग़र हो तो सही😔

आज वही शख्स पास बैठा था जिसे स्कूल टाइम से मैने दिल मे बसा रखा था। सोसल मीडिया पर उसके सारे एकाउंट चोरी छुपे देखा करती थी। उसकी हर कविता, हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा😔

माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नही चली। ना कभी इजहार हुआ। हां वो हमेशा मेरी केयर करता था, और मैं उसकी केयर करती थी। कॉलेज छुटा तो मेरी शादी हो गई और वो फ़ौज में चला गया। फिर उसकी शादी हुई। जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी।

बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई।

आधे घण्टे से ऊपर हो गया। वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था। देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नही किया😔

मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ। सोसल मीडिया पर उसके एकाउंट खोल कर देखे। तस्वीर मिलाई। वही था। पक्का वही। कोई शक नही था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नही खा सकती। 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले☺️

फिर और कुछ वक्त गुजरा। माहौल वैसा का वैसा था। मैं बस पहलू बदलती रही।

फिर अचानक टीटी आ गया। सबसे टिकिट पूछ रहा था।

मैंने अपना टिकिट दिखा दिया। उससे पूछा तो उसने कहा नही है।

टीटी बोला, "फाइन लगेगा"

वह बोला, "लगा दो"

टीटी, " कहाँ का टिकिट बनाऊं?"

उसने जल्दी से जवाब नही दिया। मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नही।

उसने मेरे हाथ मे थमी टिकिट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला, " कानपुर।"

टीटी ने कानपुर की टिकिट बना कर दी। और पैसे लेकर चला गया।

वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया।

आखिर मुझसे रहा नही गया। मैंने पूछ ही लिया,"कानपुर में कहाँ रहते हो?"

वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला, " कहीँ नही"

वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली, "किसी काम से जा रहे हो"

वह बोला, "हाँ"

अब मै चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूछ लूँ किस काम से जा रहे हो।

कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया, "वहां शायद आप नौकरी करते हो?"

उसने कहा,"नही"

मैंने फिर हिम्मत कर के पूछा "तो किसी से मिलने जा रहे हो?"

वही संक्षिप्त उत्तर ,"नही"

आखरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नही हुई कि और भी कुछ पूछूँ। अजीब आदमी था । बिना काम सफर कर रहा था।


करलू जो कैद तुम्हे इश्क के दायरे में,

लोग जल जायँगे तुम्हे मेरे इतना करीब देख के.....
 
               


वो अच्छा है तो अच्छा है, बुरा है तो भी अच्छा है 🥰
मिज़ाज-ऐ-इश्क़ में ऐब-और-हुनर देखे नहीं जाते...💞


सफर मोहब्बत का अब खत्म ही समझो,

तेरे रवय्ये से जुदाई की महक आने लगी है !!


मिजाज ही नही, हालात भी बदल रहे है
एक मैं ही नही, कुछ आप भी बदल रहे है

कौन भला रहता है, हमेशा ही सगा बनकर,
जमाने के कुछ सांप ये पोशाक भी बदल रहे है

आज कलम है, हाथों में कुछ तो बात होगी,
फिर उसे देखकर अल्फाज भी बदल रहे है

मैं कैसे लिखता यार,इस गम और तन्हाई को,
दिल के मामले के,कागजात भी बदल रहे है

फिर दोस्त कब तक रहते दो दिल जवानी में,
जो लगी आग दिल में, जज्बात भी बदल रहे है


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आज ऑफिस से बाहर निकला तो हूबहू मेरे जैसा एक लड़का मेरे सामने, रैल्वेट्रेक के उस पार खड़ा था। हम दोनों एक दूसरे को देखकर सहम गए, वो कुछ कम, मैं कुछ ज़्यादा। मुझे समझ में ही नहीं आया कि ऐसा कैसे मुमकिन हो सकता है, फ़िर मैंने देखा कि वो पल्सर पर सवार हो गया और ईश्वर जाने क्यूँ, मैं भी उसके पीछे अपनी पल्सर लेकर चल दिया।

बाईक एक सड़क के किनारे रुकता है, मेरा हमशक्ल एक गली में मुड़ जाता है और फ़िर मैं देखता हूँ कि वो एक फ्लैट के एक घर में दाख़िल हो जाता है। मैं उस घर को छुपकर देखता हूँ तो मेरी परेशानीयों का कोई ठिकाना ही नहीं रहता।

उस घर में एक बूढ़ी औरत है, जो बिल्कुल मेरी मां की तरह है। एक बूढ़ा शख़्स है, जो बिल्कुल मेरे पिता की तरह है। एक लड़की भी है, जो कि मेरी बहन जैसी है। मैं उस घर को गौर से देखता हूँ तो एहसास होता है कि वो मेरे घर जैसा है, बिल्कुल मेरे घर जैसा।

मेरा वो हमशक्ल अपनी मां से वैसे ही मज़ाक करता है, उन्हें वैसे ही तंग करता है, जैसे मैं कभी अपनी मां को करता था। वो उनके पाँव को उतने ही प्यार से दबाता है, जैसे मैं कभी दबाता था। वो लड़का अपने पिता से उतना ही डरता है, जितना मैं कभी डरता था। वो अपनी बहन को वैसे ही परेशान करता है, जैसे मैं करता था। वो उतना ही शरारती, उतना ही संजीदा, उतना ही बेपरवाह, उतना ही सीधा, उतना ही सादा है, जितना मैं कभी था।

अचानक उस लड़के की नजर दोबारा मुझ पर पड़ जाती है, उसे एहसास हो जाता है कि मैं छुपकर उसको और उसके घर को बड़ी ही हसरत भरी निगाहों से देख रहा हूँ। मैं जल्दी से वहाँ से भागने की कोशिश करता हूँ पर तब तक वो दोबारा मेरे सामने होता है, मैं भागकर सड़क की दूसरी तरफ़ भाग जाता हूँ। सड़क के दो किनारो पर खड़े होकर हम दोनों एक दूसरे को गौर से देखते हैं। उसी वक़्त मुझे एहसास होता है कि वो मेरा हमशक्ल नहीं, ख़ुद मैं हूँ।

वो लड़का बड़ी ही लाचारी भरी नज़रों से मुझे देखता है और एक ऐसी हँसी हँसता है जिसमें मानो घमंड सा हो। उसकी हँसी मानो मुझसे कह रही है कि देखो अब तुम्हारे माता पिता मेरे हैं। तुम्हारी बहन को तंग करने का हक़ अब मेरा है। तुम्हारे भाई से फरमाइशें करने का हक़ अब मेरा है। तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार, तुम्हारे ख़्वाब, तुम्हारी खुशी, तुम्हारी हँसी, यूं समझो कि तुम्हारा सब कुछ अब मेरा है।

उसकी हँसी से मेरा खून खौल उठता है और मैं दौड़कर सड़क पार करता हूँ, जाकर उसके बिलकुल सामने खड़ा होता हूँ और उसका गला कसकर दबाता हूँ और उससे पूछता हूँ, वो होता कौन है मुझसे मेरे माता पिता को छीनने वाला? वो होता कौन है मुझसे मेरे भाई-बहन को छीनने वाला? वो होता कौन है मुझसे मेरी खुशियां छीनने वाला? वो होता कौन है मुझसे, ख़ुद मुझको छीनने वाला?

उसके गले पर मेरी पकड़ कुछ ज़्यादा ही मज़बूत होने लगती है, मुझे एहसास होता है कि उसकी साँसें उखड़ रही हैं, साथ में मेरी भी। उसका गला नीला पड़ रहा है, साथ में मेरा भी। वो मर रहा है और साथ में मैं भी और अचानक वो मेरी आँखों के सामने मर जाता है और मैं भी।

उसकी लाश गिरते ही नोटों की गड्डियों में तबदील हो जाती है। पैसे ने ही तो मेरी जगह ले ली है। पैसे ने ही तो घर के सबसे लाडले बेटे को उसके माता पिता से अलग कर दिया। पैसे ने ही तो मुझे सबसे जुदा कर दिया पर किसी को मेरी कमी महसूस ही नहीं होती, क्योंकि मेरी जगह वो मेरा हमशक्ल, वो पैसा है ना। पैसा ही तो मेरी जगह मेरे घर में रह रहा है।

मेरी लाश गिरते ही मेरी आँखें खुल जाती हैं और मुझे एहसास होता है कि मैंने फिर वही खौफ़नाक सपना देखा था।

फिर मैं उठता हूँ, माथे का पसीना पोंछता हूँ, नहा-धोकर ऑफिस चला जाता हूँ 'पैसे' कमाने, डीजाईन बनाने, ताकि किसी को मेरी कमी महसूस ना हो। भले मुझे ख़ुद अपनी कमी महसूस होती रहे।

ऑफिस से निकलता हूँ तो फ़िर मेरा वो हमशक्ल मेरी आँखों के सामने सड़क के किनारे खड़ा रहता है।

अब लगता है कि सिर्फ़ मुझे ही नहीं, हर किसी को अपना ये हमशक्ल दिखाई देता होगा और वो इस बात पर दूखी होते होंगे कि उसने उनकी जगह ले ली है।

सप्रेम
#बाबाभौकाली


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मेरी कलम से मेरी जो पहचान है, वो पहचान रहने दो

मैं अनजान हूँ मुझे अनजान रहने दो

चला हूँ जिस राह पर तन्हाई की तलाश में, उस राह को तुम सुनसान रहने दो,

दो गज जमीन के नीचे ढूंढा है घोंसला, सब ले लो मुझसे बस वो मकान रहने दो,

सुनाएंगे कई लोग तुम्हें किस्से कहानियाँ मेरी,
हक है उनका उन्हें कहने दो

मैंने चुना है दर्द को अपना जो हमसफ़र, दूर रहो, इसे मुझे खुद सहने दो

मेरे शब्द गर पड़े तुम्हारी नज़र के सामने परेशान ना हो, अपने चेहरे पर मुस्कान रहने दो

अनजान है मुझे अनजान रहने दो...

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