भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भोजनपर असर पड़ता है; जैसे‒(१) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी,वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा । (२) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता है; परन्तु भोजन करनेवाला ‘मुफ्तमें भोजन मिल गया; अपने इतने पैसे बच गये; इससे मेरेमें बल आ जायगा’ आदि स्वार्थका भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है और (३) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि ‘यह घरपर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगा, भोजन बनाना पड़ेगा, भोजन कराना ही पड़ेगा’ आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा ।
इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ तात्पर्य यह है किजिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगा, उसके पदार्थ, क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
@bhagwat_geetakrishn
इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ तात्पर्य यह है किजिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगा, उसके पदार्थ, क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
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