अध्यात्म(ब्रह्मज्ञान)


Гео и язык канала: Индия, Хинди
Категория: Религия


Please Share and support us for spreading Spirituality Awareness: Adhyatm BRAHMGYAN, Sanatan Dharm, Sanskriti aur parampara.
https://t.me/adhyatmgyan

Связанные каналы  |  Похожие каналы

Гео и язык канала
Индия, Хинди
Категория
Религия
Статистика
Фильтр публикаций


कर्मसंन्यास
...

गीता का दूसरा अध्याय सांख्ययोग और तीसरा अध्याय कर्मयोग है। सांख्ययोग को आप ज्ञानयोग समझें। चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग है। इसमें ज्ञान और कर्म दोनों की महत्ता गाई है। इससे अर्जुन भ्रमित हो जाता है। वह तो आरम्भ से ही दिग्भ्रमित है। उसके सम्भ्रम से ही तो गीता की उत्पत्ति हुई है। हमें उसका आभारी होना चाहिए।

पाँचवें अध्याय कर्मसंन्यासयोग के पहले ही श्लोक में अर्जुन कह बैठता है कि हे कृष्ण, तुम कभी कर्मसंन्यास की बात करते हो और कभी कर्मयोग की- इन दोनों में से जो कल्याणकारक है, उसे मेरे लिए निश्चित रूप से बताओ।

जब कृष्ण ज्ञानकर्मसंन्यासयोग में ज्ञान और कर्म दोनों का महत्त्व बता रहे थे तो उन्हें यह विचार नहीं था कि अर्जुन इनमें भेद देखेगा। भेद था भी नहीं। ऐसा भी नहीं था कि सांख्ययोग वाले अध्याय में कर्मयोग और कर्मयोग वाले अध्याय में सांख्ययोग की चर्चा नहीं थी। किन्तु इस चौथे अध्याय के 38वें श्लोक में कृष्ण ने बड़े निर्द्वंद्व होकर कहा था कि 'न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते' (इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कुछ भी नहीं है)। 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (41वाँ श्लोक) और 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा' (37वाँ श्लोक) से अर्जुन को ऐसा आभास हुआ कि कर्म त्याज्य हैं। वह तो यही मानने के लिए मन बनाकर बैठा था। इसलिए पूछता है कि किसी एक बात को निश्चित करके बताओ।

अब यदि कृष्ण कहें कि कर्मसंन्यास श्रेष्ठ है तो अर्जुन तुरंत रथ से उतरकर धनुष नीचे रख दे और कहे कि यह मैं वन को चला। यों वह कायर नहीं है, न अहिंसक है, न करुणावान है। वह तो योद्धा है और उसके पूरे जीवन का प्रशिक्षण ही युद्ध लड़ने के लिए था। फिर यह तो धर्मयुद्ध था, जो उसने चुना नहीं, उस पर थोपा गया था। किन्तु वह मोहग्रस्त होकर युद्ध से विमुख हो रहा है। आसक्ति उस पर आरूढ़ हो गई थी। यह उसका स्वधर्म नहीं था। तो कृष्ण बहुत स्पष्ट शब्दों में पाँचवें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहते हैं कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति देने वाले हैं, किन्तु दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठ है- 'तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।'

गीता में जो निष्काम कर्म की महिमा सर्वत्र ही गाई गई है, उसका आधार पाँचवें अध्याय के इस दूसरे श्लोक पर टिका है, जिसमें कृष्ण निश्चयपूर्वक कहते हैं कि कर्मयोग कर्मसंन्यास से श्रेष्ठ है। और यह तब है, जब अध्याय का शीर्षक ही कर्मसंन्यासयोग है!

किन्तु मज़े की बात यह कि इस अध्याय के चौथे ही श्लोक में कृष्ण फिर यह कह देते हैं कि कोई बालक ही सांख्य (कर्मसंन्यास) और योग (कर्मयोग) को परस्पर-भिन्न समझेगा, ज्ञानियों के लिए तो इनमें से किसी एक को साधें तो दूसरा स्वत: सध जावे।

अभी-अभी कहा है कि कर्मयोग श्रेष्ठ है और उसके बाद तुरन्त ही यह भी कह देते हैं कि ज्ञान-कर्म में अभेद है। पहले वाली बात अर्जुन की दुविधा के समाधान के लिए कही थी। दूसरी बात में सत्य को फिर से आलोकित कर दिया।

फिर इस पाँचवें अध्याय के 12वें श्लोक में वह सूत्र देते हैं, जिसमें गीता सार है : 'युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा' (योगी कर्म नहीं कर्मों के फल का त्याग करता है!)

ज्ञान, कर्म और संन्यास में एक सातत्य और तारतम्य की स्थापना करके, इन तीनों पुष्पों को एक वेणी में गूँथकर, श्रीकृष्ण ने गीता में वह वचन दिया है, जिसने इस ग्रंथ की शपथ लेने वाले के सम्मुख न तो कर्महीनता के प्रमाद से भरने का विकल्प रख छोड़ा है, न कर्त्ताभाव से आसक्त होने का, न संन्यास लेकर पलायन कर जाने का, न संसार में लिप्त हो जाने का।

जीवन-समर के ऐन मध्य में- जैसे कुरुक्षेत्र में- समत्वयोग का यह दिव्य-गीतोपदेश है : 'समत्वं योग उच्यते!' (2.48)


गुणा गुणेषु वर्तन्त
...

गीता के तीसरे अध्याय (कर्मयोग) में जो सूत्र आया है, उस पर आजीवन मनन किया जा सकता है।

यह 28वाँ श्लोक है : 'गुणा गुणेषु वर्तन्त।' गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। अपना व्यवहार कर रहे हैं। चीज़ें अपने स्वभाव से घटित हो रही हैं। जैसे प्रकृति की कोई स्वचालित प्रक्रिया हो। आपसे पृथक है। आपके बिना भी हो रही थी, आपके बिना भी होती रहेगी- अभी मध्य में आप उसके प्रभाव में आ गए हैं। उससे कर्मों की उत्पत्ति हो रही है- किन्तु गुण और कर्म, या कहें पदार्थ और ​क्रिया- दोनों पृथक हैं। किससे पृथक हैं, उसे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं। पूरी गीता में ही क्या, समस्त वेदान्तिक साहित्य में उस चैतन्य तत्त्व को नानारूपों में कहा गया है।

इससे पूर्व के 27वें श्लोक में इसकी पीठिका बाँध दी गई थी : 'प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।' सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं। इसका बोध कर्त्ताभाव के भ्रम से मुक्त करता है। आगे और स्पष्ट किया है : 'अहङ्कारविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।' परन्तु अहंकार से विमूढ़ व्यक्ति 'मैं कर्त्ता हूँ' ऐसा मानता है।

जिस 28वें श्लोक की हम बात कर रहे थे, उसकी विशिष्टता 'गुणकर्मविभाग' का कथन भी है। यहाँ विभाग शब्द विभेद को व्यक्त करता है। गुण और कर्म दोनों का विभेद है। किससे? कहने की आवश्यकता नहीं।

पूरा श्लोक इस प्रकार है :

'तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।' 3.28।।

परन्तु (तत्त्ववित्त (ब्रह्मवेत्ता) में 'तु' जुड़ने से यहाँ परन्तु का भाव आया है, क्योंकि 'अहङ्कारविमूढ़ात्मा' से 'तत्त्ववित्त' का भेद बतलाना है) हे महाबाहो (यह अर्जुन को बल देने के लिए उससे कहा गया है), गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से पृथक जानने वाला 'सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं' ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता। 'इति मत्वा न सज्जते'।

सांख्य दर्शन में जो प्रकृति-पुरुष है- जो कि प्रकारान्तर से जड़-चेतन का द्वैत है- उसमें यही है कि समस्त क्रियाएँ जड़ प्रकृति में हैं, चैतन्य में अक्रिया है। वेदान्त चैतन्यवादी दर्शन है और गीता में वेदान्त के ज्ञानकाण्ड का सार है। इस तीसरे अध्याय कर्मयोग से ठीक पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्य का उपदेश दिया था। उससे उसे बोध न हुआ तो कर्म का उपदेश देते हैं। किन्तु उसी बात को दूसरे रूप से कहते हैं, जिसे दूसरे अध्याय में कह दिया है।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते'- यह दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में आ गया है। तीसरे अध्याय में 'प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः' कहकर विषय-प्रवर्तन किया है।

'गुणकर्मविभागयोः'- गुणविभाग और कर्मविभाग। गुणों से कर्मों की उत्पत्ति होती है और गुण गुणों में ही बरतते हैं, किन्तु 'इति मत्वा न सज्जते'- तत्त्ववित्त उनमें आसक्त नहीं होते, आत्मा को उनसे निर्लेप जानते हैं।

गीता का यह श्लोक मंत्र की तरह बारम्बार दोहराने और जीवनपर्यन्त मनन करने योग्य प्रज्ञा है- इसमें संदेह नहीं।


ख्वाहिशों ने ही भटकाये है जिंदगी के रास्ते वरना,
रूह तो उतरी थी ज़मीं पे मँजिल का पता लेकर।।


जीवन में जो कुछ भी होता है मानव को जो सुख दुख मिलता है उसके पीछे विधि की कोई योजना होती है। मानव अल्पज्ञ है वह भविष्य को नहीं जानता, लेकिन विधाता जानते हैँ की जो दुख हमको मिला उसके बदले संसार और समाज का कितना कल्याण होने वाला है।


*जीवन शतरंज के खेल की तरह है और यह खेल आप ईश्वर के साथ खेल रहे है..!*

*आपकी हर चाल के बाद, अगली चाल वो चलता है..!!*

*आपकी चाल आपकी "पसंद" कहलाती है..*
*और.., उसकी चाल "परिणाम" कहलाती है..!!!*


क्या अध्यात्म में सब कुछ छोड़ना होता है?

अध्यात्म में मूर्खताएँ, अंधेरा और अंधापन छोड़ना होता है। अध्यात्म न तो घर पकड़ने का नाम है, न ही घर छोड़ने का। यह न तो पैसा पकड़ने का नाम है, न ही पैसा फेंकने का। विपरीत लिंगी से चिपकना या दो फुट दूर रहना भी अध्यात्म नहीं है। हमारी ज़िन्दगी, हमारे रिश्ते, भावनाएँ, विचार, चिंताएँ, कल्पनाएँ, और हमारे सपने इनको जानना, इनको समझना ही अध्यात्म है। इसी दुनिया में तमीज़ से जीने को अध्यात्म कहते हैं।


*परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है।* "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है। वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है। परन्तु अद्वैत वेदांत का एक मत है इसी प्रकार वेदांत के अनेक मत है जिनमें आपसी विरोधाभास है परंतु अन्य पांच दर्शन शास्त्रों मेंं कोई विरोधाभास नहीं | वहींं अद्वैत मत जिसका एक प्रचलित श्लोक नीचे दिया गया है-

*ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रम्हैव नापरः*
*(ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या (सच-झूठ से परे) है।)*


जब पत्थर तोड़ कर भगवान बन सकते है,
तो फिर लोग घमंड तोड़कर इंसान क्यों नहीं बन सकते..!


यदि आप घर के पास
वाले मंदिर में नहीं जाते,
लेकिन दूर दूर के
मंदिरों में जाते हैं..
तो आप भक्त नहीं टूरिस्ट है


वीर आराम नही, अभ्यास करते हैं,
एक नही सौ बार, प्रयास करते हैं...


जिस प्रकार दूध में मौजूद होते हुए भी घी किसी को नहीं दिखाई नहीं देता है, फूल में गंध होने के बाद भी नजर नहीं आती है,

उसी प्रकार हमें अपनी बुराई, दूसरे की भलाई, बीज में छिपा वृक्ष और सभी जगह मौजूद ईश्वर नजर नहीं आता है.


  


गुरु की महिमा अपरंपार है,
जो उनके शरण में जाता है,
उसे हर प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है॥

शिष्य के जीवन में गुरु की उपस्थिति
उस दीपक के समान है
जो अंधकार को मिटा कर
प्रकाश फैलाता है॥

*गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।*
*गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥*


पांच पहर कर्म किया तीन पहर सोए
एको घड़ी न हरी भजे तो मुक्ति कहा से होय


*जिनकी गति और मति दोनो अर्जुन जैसी हो*

*उनका रथ आज भी श्री-कृष्ण चलाते है*




पूजा करने से धर्म का
कोई भी संबंध नही हैं,

धर्म का संबंध हैं -
शांत होने से,
मौन होने से,
शून्य होने से।




तुम्हारी सबसे बड़ी दौलत ना तुम्हारा वक्त हैं
जिसे दे रहे हो सोच समझकर देना...!


छोड़कर सब शोर शराबें, एकांत में तुम खो जाओ
दूसरो की छोड़ों, पहले ख़ुद के तो थोड़ा हो जाओ।


भूल और भगवान,

अगर मानोगे तो ही दिखाई देंगे....

Показано 20 последних публикаций.