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डर

धार्मिक ग्रुप है पर यहां भी कुछ रावण बैठे हुए है। जैसे ही कोई लड़की ग्रुप में मैसेज कर देती है कुछ लड़के सीधे इनबॉक्स में पर्सनल मैसेज करना शुरू कर देते है जो कि गलत है।

आप किसी को मैसेज करके क्या सोचते है अब ये लड़की आपसे बात करेगी आपसे मिलेगी आपसे प्रेम करेगी ? तो आप गलत है वह लड़की आपसे बात नहीं करेगी वह डरेगी आपसे वो सोचेगी अपने उसे मैसेज क्यों किया हजार सवाल और डर उत्पन्न होगा उसके मन में और ignore करते करते एक दिन आपको ब्लॉक करके चैन की सास लेगी।

किसी अंजान को मैसेज करके परेशान करने से आपको कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि आपके संस्कार और परवरिश पर सवाल खड़ा होगा।

आपके माता पिता ने आपको मोबाइल दिलवाया होगा कि आप कही रहो तो आपसे बात होती रहेगी या पढ़ाई से जुड़ी चीजें आप search कर सको गूगल मे पर आप क्या कर रहे है ? लड़कियों को मैसेज और परेशान उनको।

किसीकी मानसिक स्थिति को जानो उसे परेशान मत करो🙏 जीवन में बहुत कुछ है आपके पास हासिल करने के लिए जीवन यूंही बर्बाद मत करो🙏


व्यक्ति अकेले ही पैदा होता है और अकेले ही मर जाता है और वो अपने अच्छे और बुरे कर्मो का फल खुद ही भुगतता है और वह अकेले ही नरक या स्वर्ग जाता है


जिसका मन राम है, वो चाहे जितना मन को बदलना चाहे चलेगा सच्चाई की और अच्छाई की राह पर ही..

जिसका मन रावण है, वो लाख कोशिश करे अच्छाई और सच्चाई दिखाने की मगर करेगा धोखा ही, छल ही, बुराई ही....😎


बिना स्वार्थ के कोई आपसे रिश्ता नहीं रखेगा।

यदि आप पुरुष है तो आपके पैसे के शोषण के लिए लोग आपसे रिश्ता रखेंगे।

यदि आप स्त्री है तो आपके शरीर के शोषण के लिए लोग आपसे रिश्ता रखेंगे।

ऐसे बहुत से कम लोग होंगे जो निस्वार्थ भाव से आपसे जुड़े है।

785 0 7 19 31

मेरे कान्हा जी....

तेरे पास ही है मेरे तमाम.....
जख्मो का मरहम ..
जरा सामने आओ की.......
तबियत ठीक हो जाये.....


मासिकधर्म अपमान का नहीं गर्व और सम्मान का विषय है

भागवत पुराण के मुताबिक एक बार गुरु ब्रहस्पति इंद्र देव से नाराज हो गए। असुरों ने इस मौके का फायदा उठाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया। राक्षसों ने देवताओं को हराकर इंद्र लोक पर कब्जा कर लिया। इंद्र देव को मजबूरन अपना आसन छोड़ना पड़ा। वे मदद के लिए जगत गुरु ब्रह्मा के पास पहुंच गए। ब्रह्मा ने इस समस्या के निवारण के लिए इंद्र को किसी ब्रह्मज्ञानी की सेवा करने के लिए कहा।

ब्रह्मा के कहे अनुसार इंद्र एक ब्रह्मज्ञानी की सेवा करने लगे। उस ब्रह्मज्ञानी की मां एक असुर थी। इंद्र इस बात से अनभिज्ञ थे। वह जो भी सामग्री ब्रह्मज्ञानी को चढ़ाते, वह असुरों के पास चली जाती। इस तरह इंद्र की सेवा निष्फल साबित हो रही थी। इंद्र देव को जब इस बात का पता चला तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने क्रोध में आकर ब्रह्मज्ञानी की हत्या कर दी। इस तरह इंद्र पर ब्रह्म हत्या का पाप चढ़ गया। वे जहां भी जाते ये पाप राक्षस के रूप में उनका पीछा करता।

थक हारकर इंद्र एक फूल के अंदर समा गए और वहीं पर छिपकर भगवान विष्णु की आराधना करने लगे। कई सालों तक तपस्या करने के बाद विष्णु इंद्र से प्रसन्न हो गए। वे स्वयं इंद्र के समक्ष प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। इंद्र देव ने विष्णु से उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति दिलाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने कहा कि अगर इस पाप को वृक्ष, जल, धरती और स्त्री में बराबर बांट दिया जाए तो इंद्र देव इससे मुक्त हो जाएंगे।

इंद्र देव इन चारों को मनाने की कोशिश में जुट गए। इंद्र ने वृक्ष, जल, धरती और स्त्री को अपने पाप का बराबर हिस्सा बांटने के लिए मनाया। इसके बदले उन्हें एक-एक वरदान देने का वादा किया। वृक्ष को इंद्र का पाप लेने के बदले अपने आप जीवित होने का वरदान मिला। जल ने भी इंद्र के पाप का एक हिस्सा ग्रहण किया और उसे वरदान मिला कि उसमें किसी भी चीज को पवित्र करने की ताकत होगी।

इसी तरह धरती ने इंद्र के पाप के बदले वरदान लिया कि उस पर पड़ने वाली चोट का कोई असर नहीं होगा और फिर से ठीक हो जाएगी। अंत में स्त्री ने भी इंद्र के पाप के एक चौथाई हिस्से को ग्रहण किया और उसे मासिक धर्म की यातना मिली। इसके बदले स्त्री को वरदान मिला कि वह पुरुषों के मुकाबले काम का कई गुना ज्यादा आनंद उठा सकेगी। इस तरह हर महीने स्त्रियों को मासिक धर्म होता है। इस दौरान वे देवताओं की पूजा नहीं करती हैं।

@Sudhir_Mishra0506


कभी किसी को नीचा मत समझो। बुरा समय भगवान की कुछ समय की लीला का ही हिस्सा है, बुरा समय इसलिए आया है ताकी उसके झूठे अहंकार का नाश हो जाए और उसे जीवन की सच्चाई पता चल जाए इसके बाद वो ऐसा उठेगा कि कोई छू भी नहीं सकता।


Success is not final, failure is not fatal: it is the courage to continue that counts.

सफलता आखिरी नहीं है, असफलता घातक नहीं है: ये चलते रहने का साहस है जो मायने रखता है।


सुनो, Winner वो होता है, जो बार-बार हारने के बाद एक ओर बार प्रयास करता है…!


You don’t have to see the whole staircase, just take the first step.

आपको पूरी सीढ़ी देखने की ज़रुरत नही है, बस पहला कदम उठा लीजिये।


श्रीमदभगवदगीता

दूसरा अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥

भावार्थ
हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।

व्याख्या
समता का भाव हमें सभी परिस्थितियों को शांतिपूर्वक स्वीकार करने के योग्य बनाता है। यह इतना प्रशंसनीय है कि भगवान ने इसे 'योग' अर्थात् भगवान के साथ एक होना कहा है। यह समबुद्धि पिछले श्लोक में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करने से आती है। जब हम यह जान जाते हैं कि प्रयास करना हमारे हाथ में है किंतु परिणाम सुनिश्चित करना हमारे नियंत्रण मे नहीं है तब हम केवल अपने कर्तव्यों के पालन की ओर ध्यान देते हैं। फलों की प्राप्ति भगवान के सुख के लिए है और हमें उन्हें भगवान को अर्पित करना चाहिए। अब ऐसी स्थिति में यदि हम यश और अपयश, सफलता और असफलता, सुख और दुःख दोनों को समान रूप से भगवान की इच्छा मानते हुए ग्रहण करना सीख लेते हैं तब हमारे भीतर ऐसा समभाव विकसित होता है जिसकी व्याख्या भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी है।

यह श्लोक जीवन की उथल-पुथल का अति व्यावहारिक समाधान है। यदि हम समुद्र में नौका चलाते हैं तब यह स्वाभाविक है कि समुद्र की लहरें नौका को हिला सकती हैं। यदि हम हर समय यह सोंचकर व्याकुल होते है कि लहरें नाव से टकरायेंगी तब हमारे दुःखों का कोई अंत नहीं होगा और यदि हम समुद्र में लहरें न उठने की अपेक्षा करते तब समुद्र की प्राकृतिक विशेषताओं में विरोध उत्पन्न होता है। लहरों का समुद्र से अविछिन्न सम्बंध है। उसी प्रकार से जब हम जीवन रूपी समुद्र को पार करते हैं तब हमारे सम्मुख लहरों के समान अनेक बाधाएँ आती हैं जो हमारे नियंत्रण से परे होती हैं।

यदि हम संघर्ष करते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों को जीतना भी चाहें तब भी हम दुःखों को टालने में असमर्थ होंगे। यदि हम अपने मार्ग में आने वाली सभी कठिनाइयों का सामना करना सीख लेते हैं और उन्हें भगवान की इच्छा पर छोड़ देते हैं तब इसे ही वास्तविक 'योग' कहा जाएगा।

जय श्री कृष्ण

@bhagwat_geetakrishn

@Sudhir_Mishra0506


अग़र हम
सफ़ल होना चाहते हैं
तो अपने अन्दर की
प्रतिभा को पहचानें ।

ज़िन्दगी एक खेल है
यदि हम इसे
खिलाड़ी की तरह
देखते हैं तो
जीत सकते हैं ।

लेकिन

यदि
दर्शक की तरह
देखते हैं तो
सिर्फ़ ताली
बजा सकते हैं या
दुःखी हो सकते हैं,
जीत नहीं सकते ।


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वे सूर्य वंश के सूरज,
वे रघुकुल के उज्जयारे ।
राजीव नयन बोलें मधुभरी वाणी।


दशरथ के घर जन्मे राम
राम सियाराम सियाराम जय जय राम।

आप सभी को रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🌻❤️


श्रीमदभगवदगीता

दूसरा अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥

भावार्थ
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो

व्याख्या
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म के विषय में महत्वपूर्ण उपदेश दे रहे हैं। यहाँ पर 'कर्म' (कार्य) और 'फल' (परिणाम) के संबंध को स्पष्ट किया गया है।

कर्मण्यवाधिकारस्ते" - इसका तात्पर्य है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने पर है। तुम केवल अपने कार्य पर ध्यान दो, न कि कार्य के फल पर।

"मा फलेषु कदाचन" - तुम्हें कभी भी कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। जब तुम कार्य करते हो, तो तुम्हारे लिए परिणाम की चिंता करना उचित नहीं है।

"मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा" - इसका अर्थ है कि तुम्हारे कर्म का उद्देश्य फल प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। कर्म का मुख्य उद्देश्य सही तरीके से कर्म करना है, न कि उसके परिणाम की अपेक्षा रखना।

"ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि" - यदि तुम कर्म के फल में संलग्न रहोगे, तो इससे तुम्हारी कर्म से मनोयोगिता और लगाव कम होगा। यही कारण है कि तुम्हें कर्म से जुड़े रहना चाहिए और निष्काम भाव से कार्य करना चाहिए।

इस प्रकार, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखा रहे हैं कि कर्म करना ही उनका धर्म है, और उसे फल की चिंता किए बिना सच्चे मन से करना चाहिए। फल पर चिंता करने की बजाय, हमें केवल सही कर्म पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उसके परिणाम को ईश्वर के हाथ में छोड़ देना चाहिए

@bhagwat_geetakrishn

@Sudhir_Mishra0506


सुनो, चतुर युग चल रहा है, इसलिए ये विचार छोड़ दीजिए कि बिना स्वार्थ के लोग आप से रिश्ता रखेंगे…!


श्रीमदभगवदगीता

पहला अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥46॥

भावार्थ
जैसे एक छोटे जलकूप का समस्त कार्य सभी प्रकार से विशाल जलाशय द्वारा तत्काल पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार परम सत्य को जानने वाले वेदों के सभी प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।

व्याख्या
वेदों में एक लाख मंत्रा हैं जिनमें विभिन्न धार्मिक विधि विधानों, प्रार्थनाओं, अनुष्ठानों, और दिव्य ज्ञान का वर्णन किया गया है। इन सबका एक ही उद्देश्य आत्मा को परमात्मा के साथ एकीकृत करने में सहायता करना है।

वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः।।
सांख्य योग वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः।।

(श्रीमद्भागवतम्-1.2.28-29)

"सभी वैदिक मंत्रों, धार्मिक विधि-विधानों, आध्यात्मिक क्रियाओं, यज्ञ, ज्ञान और कर्तव्यों का निर्वहन करने का लक्ष्य भगवान के दिव्य चरणों में प्रीति उत्पन्न करने में सहायता करना है।" जिस प्रकार औषधि की टिकिया पर प्रायः शक्कर का लेप लगा होता है ताकि वह मधुर लगे, उसी प्रकार वेद भौतिक प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को सांसारिक प्रलोभनों की ओर आकर्षित करते हैं। इनका उद्देश्य मनुष्य को धीरे-धीरे सांसारिक बंधनों से विरक्त कर उसे भगवान में अनुरक्त करने में सहायता करना है। इस प्रकार जब किसी मनुष्य का मन भगवान में लीन हो जाता है तब स्वतः ही सभी वैदिक मंत्रों का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा उद्धव को दिया गया उपदेश

आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान्।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत स सत्तमः।।

(श्रीमद्भागवतम्-11.11.32)

"वेदों में मनुष्य के लिए सामाजिक और धार्मिक विधि विधानों से संबंधित विभिन्न कर्त्तव्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन वे मनुष्य जो इनके अंतर्निहित अभिप्राय को समझ लेते हैं और उनके मध्यवर्ती उपदेशों का त्याग करते हैं तथा पूर्ण समर्पण भाव से मेरी भक्ति और सेवा में तल्लीन रहते हैं, उन्हें मैं अपना परम भक्त मानता हूँ।"

@bhagwat_geetakrishn

@Sudhir_Mishra0506


लालच बुरी बला है..

एक शहर में एक आदमी रहता था। वह बहुत ही लालची था। उसने सुन रखा था की अगर संतो और साधुओं की सेवा करे तो बहुत ज्यादा धन प्राप्त होता है। यह सोच कर उसने साधू-संतो की सेवा करनी प्रारम्भ कर दी। एक बार उसके घर बड़े ही चमत्कारी संत आये।
उन्होंने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे चार दीये दिए और कहा,”इनमे से एक दीया जला लेना और पूरब दिशा की ओर चले जाना जहाँ यह दीया बुझ जाये, वहा की जमीन को खोद लेना, वहा तुम्हे काफी धन मिल जायेगा। अगर फिर तुम्हे धन की आवश्यकता पड़े तो दूसरा दीया जला लेना और पक्षिम दिशा की ओर चले जाना, जहाँ यह दीया बुझ जाये, वहा की जमीन खोद लेना तुम्हे मन चाही माया मिलेगी। फिर भी संतुष्टि ना हो तो तीसरा दीया जला लेना और दक्षिण दिशा की ओर चले जाना। उसी प्रकार दीया बुझने पर जब तुम वहाँ की जमीन खोदोगे तो तुम्हे बेअन्त धन मिलेगा। तब तुम्हारे पास केवल एक दीया बच जायेगा और एक ही दिशा रह जायेगी। तुमने यह दीया ना ही जलाना है और ना ही इसे उत्तर दिशा की ओर ले जाना है।”
यह कह कर संत चले गए। लालची आदमी उसी वक्त पहला दीया जला कर पूरब दिशा की ओर चला गया। दूर जंगल में जाकर दीया बुझ गया। उस आदमी ने उस जगह को खोदा तो उसे पैसो से भरी एक गागर मिली। वह बहुत खुश हुआ। उसने सोचा की इस गागर को फिलहाल यही रहने देता हूँ, फिर कभी ले जाऊंगा। पहले मुझे जल्दी ही पक्षिम दिशा वाला धन देख लेना चाहिए। यह सोच कर उसने दुसरे दिन दूसरा दीया जलाया और पक्षिम दिशा की ओर चल पड़ा। दूर एक उजाड़ स्थान में जाकर दीया बुझ गया। वहा उस आदमी ने जब जमीन खोदी तो उसे सोने की मोहरों से भरा एक घड़ा मिला। उसने घड़े को भी यही सोचकर वही रहने दिया की पहले दक्षिण दिशा में जाकर देख लेना चाहिए। जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने के लिए वह बेचैन हो गया।
अगले दिन वह दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा। दीया एक मैदान में जाकर बुझ गया। उसने वहा की जमीन खोदी तो उसे हीरे-मोतियों से भरी दो पेटिया मिली। वह आदमी अब बहुत खुश था।
तब वह सोचने लगा अगर इन तीनो दिशाओ में इतना धन पड़ा है तो चौथी दिशा में इनसे भी ज्यादा धन होगा। फिर उसके मन में ख्याल आया की संत ने उसे चौथी दिशा की ओर जाने के लिए मन किया है। दुसरे ही पल उसके मन ने कहा,” हो सकता है उत्तर दिशा की दौलत संत अपने लिए रखना चाहते हो। मुझे जल्दी से जल्दी उस पर भी कब्ज़ा कर लेना चाहिए।” ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने की लालच ने उसे संतो के वचनों को दुबारा सोचने ही नहीं दिया।
अगले दिन उसने चौथा दीया जलाया और जल्दी-जल्दी उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। दूर आगे एक महल के पास जाकर दीया बुझ गया। महल का दरवाज़ा बंद था। उसने दरवाज़े को धकेला तो दरवाज़ा खुल गया। वह बहुत खुश हुआ। उसने मन ही मन में सोचा की यह महल उसके लिए ही है। वह अब तीनो दिशाओ की दौलत को भी यही ले आकर रखेगा और ऐश करेगा।

वह आदमी महल के एक-एक कमरे में गया। कोई कमरा हीरे-मोतियों से भरा हुआ था। किसी कमरे में सोने के किमती से किमती आभूषण भरे पड़े थे। इसी प्रकार अन्य कमरे भी बेअन्त धन से भरे हुए थे। वह आदमी चकाचौंध होता जाता और अपने भाग्य को शाबासी देता। वह जरा और आगे बढ़ा तो उसे एक कमरे में चक्की चलने की आवाज़ सुनाई दी। वह उस कमरे में दाखिल हुआ तो उसने देखा की एक बूढ़ा आदमी चक्की चला रहा है। लालची आदमी ने बूढ़े से कहा की तू यहाँ कैसे पंहुचा। बूढ़े ने कहा,”ऐसा कर यह जरा चक्की चला, मैं सांस लेकर तुझे बताता हूँ।”
लालची आदमी ने चक्की चलानी प्रारम्भ कर दी। बूढ़ा चक्की से हट जाने पर ऊँची-ऊँची हँसने लगा। लालची आदमी उसकी ओर हैरानी से देखने लगा। वह चक्की बंद ही करने लगा था की बूढ़े ने खबरदार करते हुए कहा, “ना ना चक्की चलानी बंद ना कर।” फिर बूढ़े ने कहा,”यह महल अब तेरा है। परन्तु यह उतनी देर तक खड़ा रहेगा जितनी देर तक तू चक्की चलाता रहेगा। अगर चक्की चक्की चलनी बंद हो गयी तो महल गिर जायेगा और तू भी इसके निचे दब कर मर जायेगा।” कुछ समय रुक कर बूढ़ा फिर कहने लगा,”मैंने भी तेरी ही तरह लालच करके संतो की बात नहीं मानी थी और मेरी सारी जवानी इस चक्की को चलाते हुए बीत गयी।”
वह लालची आदमी बूढ़े की बात सुन कर रोने लग पड़ा। फिर कहने लगा,”अब मेरा इस चक्की से छुटकारा कैसे होगा?”
बूढ़े ने कहा,”जब तक मेरे और तेरे जैसा कोई आदमी लालच में अंधा होकर यहाँ नही आयेगा। तब तक तू इस चक्की से छुटकारा नहीं पा सकेगा।” तब उस लालची आदमी ने बूढ़े से आखरी सवाल पूछा,”तू अब बाहर जाकर क्या करेगा?”
बूढ़े ने कहा,”मैं सब लोगो से ऊँची-ऊँची कहूँगा,लालच बुरी बला है..!!”

जय श्री कृष्ण

@bhagwat_geetakrishn

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अहंकार चाहे किसी भी चीज का हो, सर्वनाश करके ही छोड़ता है…!


श्रीमदभगवदगीता

पहला अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥45॥

भावार्थ
वेदों में प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन मिलता है। हे अर्जुन! प्रकृति के इन गुणों से ऊपर उठकर विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना मे स्थित हो जाओ। परम सत्य में स्थित होकर सभी प्रकार के द्वैतों से स्वयं को मुक्त करते हुए भौतिक लाभ-हानि और सुरक्षा की चिन्ता किए बिना आत्मलीन हो जाओ।

व्याख्या
मायाशक्ति अपने तीन प्रकार के प्राकृतिक गुणों द्वारा दिव्य आत्मा को देह में बांधती है। ये तीन-गुण, सत्व (शुभ कर्म) रजस (आसक्ति) और तमस (अज्ञानता) हैं। प्रत्येक मनुष्य में पिछले अनन्त जन्मों के संस्कारों और उनकी रुचि व प्रवृत्ति के अनुसार इन गुणों की भिन्नता होती हैं। वैदिक ग्रंथ इस असमानता को स्वीकार करते हैं और सभी प्रकार के मनुष्यों को उचित उपदेश देते हैं। यदि शास्त्रों में सांसारिक मोह-माया में लिप्त मनुष्यों के लिए उपदेश निहित न हो तब आगे चलकर वे और अधिक पथ भ्रष्ट हो जाएंगे। इसलिए वेदों में मनुष्यों को भौतिक सुख प्रदान करने के प्रयोजनार्थ कठोर कर्मकाण्डों का वर्णन किया गया है जो मनुष्य को अज्ञानता अर्थात तमोगुण से रजो गुण और रजो गुण से सत्व गुण तक ऊपर उठने में उनकी सहायता कर सके। इसलिए वेदों में भौतिक सुखों में आसक्ति रखने वालों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों और आध्यात्मिक अभिलाषा रखने वाले मनुष्यों के लिए दिव्य ज्ञान दोनों प्रकार की विद्याएँ सम्मिलित हैं।

जब श्रीकृष्ण अर्जुन को वेदों की अवहेलना करने के लिए कहते हैं तब उनके इस कथन को आगे आने वाले श्लोकों के संदर्भ में समझना आवश्यक है जिनमें वे यह इंगित कर रहे हैं कि अर्जुन वेदों के उन खण्डों पर अपना ध्यान आकर्षित न करे जिनमें भौतिक सुखों के लिए धार्मिक विधि विधानों और अनुष्ठानों को प्रतिपादित किया गया है अपितु परम सत्य को जानने के लिए तथा स्वयं को आध्यात्मिकता के उच्च स्तर तक उठाने के लिए वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण वेदों के आध्यात्मिक भागों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे।

@bhagwat_geetakrishn

@Sudhir_Mishra0506

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