🍁मेरा___वहम🍁
क़रीब क़रीब यही वक्त था
शाम का......।
मैं यकीनन तो नहीं कह सकती मगर
लगभग लगभग शाम के 5 बजें
हुए थे......।
और लखनऊ के उस ट्रैफिक में आज़
फ़िर न चाहते हुए हम फस
गए थे .......।
शाम का वक्त था और ऊपर से
आज़ का मौसम भी उल्फतो से भरा हुआ
और ख़ुद में मगरूर सा लेकिन अपनी
अदाओं से सबको लुभाने वाला था.....।
लगभग 15 मिनट बीत चुके थे
रफीक साहब के गाने सुनते सुनते
लेकिन मजाल की हमारी सवारी ज़रा
सी भी हिली हो.......।
मैं उलझ ही रही थी ख़ुद में ख़ुद से की
उन सन्नाटों की ख़ामोशी में एक सहमी
हुई सी आवाज़ मेरे ख़याल को कुछ
देर अपनी ओर खींच के ले गई ......।
रंग गेहुंआ सा कद काठी बिल्कुल मेरी
तरह थी चेहरे से साफ़ लग रहा था कई
दिन हो गया उसे अपनी मजबूरी को ज़िंदा
रखने से ज़्यादा कुछ नसीब नही
हुआ था.......।
बदन में धूल मिट्टी से सना हुआ एक
लिबाज़ था जो उसकी बेबसी और
मज़बूरी को साफ़ साफ़ जाहिर कर
रहा था.......।
एक हाथ में उसने पैन से भरा हुआ
एक बंडल थामा हुआ था
और दूसरे हाथों को उसने एक
काले रंग के धूल मिट्टी से कटे फटे से
कपड़े से ढंका हुआ था......।
वो ठीक मेरे सामने थी और एक सफ़ेद रंग
की बड़ी सी चमचमाती कार के सामने
अपने पैन के बंडल को खुले हुए खिड़की के
दराज से कार में बैठे उस शख़्स की ओर
बढ़ाते हुए बार बार बस यही कह
रही थी......।
साहब बस दश का एक है, लेलो साहब
बस दश का एक है....लेलो साहब
बस दस का एक.........
उसका बस ये कहना था कि मैंने ख़ुद को
झूठे और खोखले से वहम में इस क़दर
डूबा लिया कि मानो अगर मैं उस चमचमाती
कार में बैठे शख़्स की जगह होती तो मैं बिना
एक पल गंवाए हुए उसे उस कार की चाभी
ही थमा देती .......।
मगर फ़िर एक सहमी सी आवाज़ मेरे
बनावटी से भरे ख़याल को तोड़ते हुए
मेरे बिल्कुल क़रीब सुनाई दी......।
नज़र घुमाई तो देखा वो बिल्कुल मेरे बाज़ू
में थी और इस बार भी वो वही सब कह रही
थी जो उसने मेरे हिसाब से उस चमचमाती
गाड़ी में बैठे मगरूर शख़्स से कहा था.....।
बस दस का एक...... लेलो बहेन
बस दस का एक........
उसका बस मुझ-से ये कहना था
कि मैंने एक बनावटी भरा हुआ मज़बूरी
का लिबाज़ डाल दिया अपने चेहरे पे
जिसमें से मेरी खुदगर्ज़ी और बनावटी
पन की चमक साफ़ साफ़ झलक
रही थी.......।
मैंने इस क़दर लपेट रखा था उस खुदगर्ज़ी
से भरे लिबाज़ को अपने चेहरे में की मानो
यहां अगर कोई मज़बूर बेबस और लाचार है
भी तो उसकी स्थिति मुझसे कहीं
ज़्यादा बेहतर है......।
मैंने महसूस किया जब मैं ख़ुद को
बेबस लाचार बनाने की कोशिश में थी
उस दरमियान वो मुझे बस एक टक देखती
रही कुछ देर यूं ही ......।
और फ़िर बिना एक पल गंवाएं उसने
वो पैन से भरा हुआ बंडल और दश बीस
की तीन चार नोट कुछ चिल्लर और काले
रंग का वही धूल मिट्टी से सना लिबाज़
जिसे अब तक उसने अपना एक दूसरा
बाज़ू बनाके अपने कंधो में छिपा रखा था
मेरे हाथो में थमाते हुए बिना कुछ बोले
आगे बढ़ गई......।
मुझे लगा जैसे किसी ने एक ज़ोर दार तमाचा
मारा था मेरे ज़मीर पे जो ओढ़ के लिबाज़
बैठा हुआ था अब तक ख़ामोशी का......।
मैं रोकने उसे उसके पीछे भागी और इस
चक्कर में इस क़दर खो गई की मुझे ख़याल
ही नहीं रहा की कब वो पैसे मेरे जेब से गिर
गए कहीं जो लिए थे मैंने आज़ ही थियेटर में
लगी हुई नई पिक्चर की टिकट
खरीदनें के लिए........।
~S.🍁akshi
क़रीब क़रीब यही वक्त था
शाम का......।
मैं यकीनन तो नहीं कह सकती मगर
लगभग लगभग शाम के 5 बजें
हुए थे......।
और लखनऊ के उस ट्रैफिक में आज़
फ़िर न चाहते हुए हम फस
गए थे .......।
शाम का वक्त था और ऊपर से
आज़ का मौसम भी उल्फतो से भरा हुआ
और ख़ुद में मगरूर सा लेकिन अपनी
अदाओं से सबको लुभाने वाला था.....।
लगभग 15 मिनट बीत चुके थे
रफीक साहब के गाने सुनते सुनते
लेकिन मजाल की हमारी सवारी ज़रा
सी भी हिली हो.......।
मैं उलझ ही रही थी ख़ुद में ख़ुद से की
उन सन्नाटों की ख़ामोशी में एक सहमी
हुई सी आवाज़ मेरे ख़याल को कुछ
देर अपनी ओर खींच के ले गई ......।
रंग गेहुंआ सा कद काठी बिल्कुल मेरी
तरह थी चेहरे से साफ़ लग रहा था कई
दिन हो गया उसे अपनी मजबूरी को ज़िंदा
रखने से ज़्यादा कुछ नसीब नही
हुआ था.......।
बदन में धूल मिट्टी से सना हुआ एक
लिबाज़ था जो उसकी बेबसी और
मज़बूरी को साफ़ साफ़ जाहिर कर
रहा था.......।
एक हाथ में उसने पैन से भरा हुआ
एक बंडल थामा हुआ था
और दूसरे हाथों को उसने एक
काले रंग के धूल मिट्टी से कटे फटे से
कपड़े से ढंका हुआ था......।
वो ठीक मेरे सामने थी और एक सफ़ेद रंग
की बड़ी सी चमचमाती कार के सामने
अपने पैन के बंडल को खुले हुए खिड़की के
दराज से कार में बैठे उस शख़्स की ओर
बढ़ाते हुए बार बार बस यही कह
रही थी......।
साहब बस दश का एक है, लेलो साहब
बस दश का एक है....लेलो साहब
बस दस का एक.........
उसका बस ये कहना था कि मैंने ख़ुद को
झूठे और खोखले से वहम में इस क़दर
डूबा लिया कि मानो अगर मैं उस चमचमाती
कार में बैठे शख़्स की जगह होती तो मैं बिना
एक पल गंवाए हुए उसे उस कार की चाभी
ही थमा देती .......।
मगर फ़िर एक सहमी सी आवाज़ मेरे
बनावटी से भरे ख़याल को तोड़ते हुए
मेरे बिल्कुल क़रीब सुनाई दी......।
नज़र घुमाई तो देखा वो बिल्कुल मेरे बाज़ू
में थी और इस बार भी वो वही सब कह रही
थी जो उसने मेरे हिसाब से उस चमचमाती
गाड़ी में बैठे मगरूर शख़्स से कहा था.....।
बस दस का एक...... लेलो बहेन
बस दस का एक........
उसका बस मुझ-से ये कहना था
कि मैंने एक बनावटी भरा हुआ मज़बूरी
का लिबाज़ डाल दिया अपने चेहरे पे
जिसमें से मेरी खुदगर्ज़ी और बनावटी
पन की चमक साफ़ साफ़ झलक
रही थी.......।
मैंने इस क़दर लपेट रखा था उस खुदगर्ज़ी
से भरे लिबाज़ को अपने चेहरे में की मानो
यहां अगर कोई मज़बूर बेबस और लाचार है
भी तो उसकी स्थिति मुझसे कहीं
ज़्यादा बेहतर है......।
मैंने महसूस किया जब मैं ख़ुद को
बेबस लाचार बनाने की कोशिश में थी
उस दरमियान वो मुझे बस एक टक देखती
रही कुछ देर यूं ही ......।
और फ़िर बिना एक पल गंवाएं उसने
वो पैन से भरा हुआ बंडल और दश बीस
की तीन चार नोट कुछ चिल्लर और काले
रंग का वही धूल मिट्टी से सना लिबाज़
जिसे अब तक उसने अपना एक दूसरा
बाज़ू बनाके अपने कंधो में छिपा रखा था
मेरे हाथो में थमाते हुए बिना कुछ बोले
आगे बढ़ गई......।
मुझे लगा जैसे किसी ने एक ज़ोर दार तमाचा
मारा था मेरे ज़मीर पे जो ओढ़ के लिबाज़
बैठा हुआ था अब तक ख़ामोशी का......।
मैं रोकने उसे उसके पीछे भागी और इस
चक्कर में इस क़दर खो गई की मुझे ख़याल
ही नहीं रहा की कब वो पैसे मेरे जेब से गिर
गए कहीं जो लिए थे मैंने आज़ ही थियेटर में
लगी हुई नई पिक्चर की टिकट
खरीदनें के लिए........।
~S.🍁akshi