नासिका के बायें छिद्र के श्वास को इडा में चलना तथा दाहिने छिद्र से श्वास चलना पिङ्गला में चलना तथा दोनों का समान रूप से चलना सुषम्णा में चलना माना जाता है। ज्ञात हो कि प्रतिदिन ढाई ढाई घड़ी के हिसाब से एक-एक नासिका छिद्र से श्वास चलता है। इस प्रकार रात-दिन में बारह बार बायीं और बारह बार दायीं नासिका से क्रमानुसार श्वास चलता है।
रुद्रयामल तन्त्र की भूमिका में पं. मालवीय जी ने पवनविजय स्वरोदय का उदाहरण दिया है जो इस प्रकार है-
आदौ चन्द्रसिते पक्षे भास्करस्तु सितेहरे। प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रीणि त्रीणि क्रमोदये ।।
यह भी तथ्यात्मक रहस्य है कि जब बायीं नासिकापुर से श्वास चल रहा हो तो उसे चन्द्रस्वर का चलना माना जाता है तथा यदि दायीं नासिकापुट से श्वास चल रहा हो तो उसे सूर्यस्वर का चलना माना जाता है। अतः शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से तीन-तीन दिन की बारी से चन्द्रस्वर बायीं नासिका से चलता है और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से तीन-तीन दिन की बारी से सूर्यस्वर दायीं नासिका से चलता है। अर्थात् शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा इन नौ दिनों में प्रातःकाल सूर्योदय के समय पहले बायीं नासिका से ढाई घड़ी तक चन्द्रस्वर चलता है, उसके बाद ढाई ढाई घड़ी से क्रमशः चलता रहता है तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी इन छः दिनों प्रातःकाल ढाई-ढाई घण्टे तक पहले सूर्य चलता है; फिर उसी क्रम से चलता रहता है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या 9 दिन को सूर्योदय के समय सूर्यस्वर (दाहिना) स्वर चलना प्रारम्भ होता है फिर क्रमशः ढाई घड़ी के हिसाब से चलता रहता है तथा चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी इन 6 दिन सूर्योदय के समय पहले चन्द्रस्वर अर्थात् बायीं नासिका से श्वास चलता है और ढायी घण्टे बाद बदलता रहता है।
स्वर शास्त्र के अनुसार इस श्वास चलने के क्रम में क्रमशः पाँच तत्त्वों का उदय होता है। इस श्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य चिरायु होता है। यही नहीं उससे सभी प्रकार के सांसारिक कार्यों में सफलता मिलती है।
#swar #vigyan
रुद्रयामल तन्त्र की भूमिका में पं. मालवीय जी ने पवनविजय स्वरोदय का उदाहरण दिया है जो इस प्रकार है-
आदौ चन्द्रसिते पक्षे भास्करस्तु सितेहरे। प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रीणि त्रीणि क्रमोदये ।।
यह भी तथ्यात्मक रहस्य है कि जब बायीं नासिकापुर से श्वास चल रहा हो तो उसे चन्द्रस्वर का चलना माना जाता है तथा यदि दायीं नासिकापुट से श्वास चल रहा हो तो उसे सूर्यस्वर का चलना माना जाता है। अतः शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से तीन-तीन दिन की बारी से चन्द्रस्वर बायीं नासिका से चलता है और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से तीन-तीन दिन की बारी से सूर्यस्वर दायीं नासिका से चलता है। अर्थात् शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा इन नौ दिनों में प्रातःकाल सूर्योदय के समय पहले बायीं नासिका से ढाई घड़ी तक चन्द्रस्वर चलता है, उसके बाद ढाई ढाई घड़ी से क्रमशः चलता रहता है तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी इन छः दिनों प्रातःकाल ढाई-ढाई घण्टे तक पहले सूर्य चलता है; फिर उसी क्रम से चलता रहता है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या 9 दिन को सूर्योदय के समय सूर्यस्वर (दाहिना) स्वर चलना प्रारम्भ होता है फिर क्रमशः ढाई घड़ी के हिसाब से चलता रहता है तथा चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी इन 6 दिन सूर्योदय के समय पहले चन्द्रस्वर अर्थात् बायीं नासिका से श्वास चलता है और ढायी घण्टे बाद बदलता रहता है।
स्वर शास्त्र के अनुसार इस श्वास चलने के क्रम में क्रमशः पाँच तत्त्वों का उदय होता है। इस श्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य चिरायु होता है। यही नहीं उससे सभी प्रकार के सांसारिक कार्यों में सफलता मिलती है।
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