९० के दशक में द्वैतवादी मध्वसम्प्रदाय के विद्वानों द्वारा अद्वैतवादियों को यह चुनौती दी गई कि "कोई हमारे साथ शास्त्रार्थ करे एवं विजयी होकर १ लाख पारितोषिक ले जाए"। काशी के अद्वैतवादी विद्वानों ने यह चुनौती स्वीकार की और कहा कि काशी में शास्त्रार्थ सभा का आयोजन हो, किन्तु काशी में सभा होने का यह विचार आगे न बढ़ सका। अन्त में द्वादशदर्शनाचार्य स्वामी श्रीकाशिकानन्दगिरी जी ने १९९० अप्रैल में मध्वों के गढ़ बंगलुरु में प्रवेश किया एवं स्वामी विद्यामान्य तीर्थ जी को विचारसभा में परास्त किया। इस प्रकार स्वामी करपात्री जी के पश्चात विद्यामान्य जी को परास्त करने वाले वे द्वितीय संंन्यासी बने।
बंगलुरु शास्त्रार्थ के पश्चात अनेक वर्षों तक स्वामी जी का श्री विद्यामान्य तीर्थ जी के साथ लिखित शास्त्रार्थ चला। पूर्व की ही भांति माध्वों द्वारा इस शास्त्रार्थ के परिणाम को मिथ्या सिद्ध करने के प्रयास में अनेकों पुस्तकें लिखी गई। जिनका सम्पूर्ण उत्तर स्वामीकाशिकानंदजी ने दिया।
लिखित शास्त्रार्थ का अन्तिम उत्तर स्वामी काशिकानंद गिरी जी की और से १९९३ में आया,, स्वामी जी ५ वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहे कि विद्यामान्य जी कोई उत्तर दें ,किन्तु माध्वों की और से कोई उत्तर नहीं आया। अन्त में १९९८ में स्वामी जी द्वारा बंगलुरु में हुए शास्त्रार्थ एवं अन्य विषयों को जोड़कर यह "अद्वैत विजय वैजयन्ती" ग्रन्थ प्रकाशित किया गया।
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लिखित शास्त्रार्थ का अन्तिम उत्तर स्वामी काशिकानंद गिरी जी की और से १९९३ में आया,, स्वामी जी ५ वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहे कि विद्यामान्य जी कोई उत्तर दें ,किन्तु माध्वों की और से कोई उत्तर नहीं आया। अन्त में १९९८ में स्वामी जी द्वारा बंगलुरु में हुए शास्त्रार्थ एवं अन्य विषयों को जोड़कर यह "अद्वैत विजय वैजयन्ती" ग्रन्थ प्रकाशित किया गया।
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