शाङ्कर किंकर:🌹 SHANKAR KINKAR🌹


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यहां श्रुति स्मृति पुराण धर्मशास्त्र आदि के महापुरुषों द्वारा किए गए व्याख्यान एवं विचार तथा आगम-निगम से संलग्न प्रवचनादी प्रस्तुत किए जाएंगे
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सभी जातियों/वर्णों में से लोकाचार जानने वाले, सदाचारी, समभाव वाले, धर्मज्ञ, सत्यवादी वृद्ध लोगों को राजसभा का सदस्य बनाएँ।

Old persons from ALL CASTES/VARNA, who know social norms & Dharma, are truthful, neutral & of good conduct should be members of King’s council.

- Śukranīti

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क्या दुर्योधन ने कर्ण से मित्रता का प्रस्ताव किया था? नहीं।

गुरुकुल में पढ़ते समय ही कर्ण ने दुर्योधन के साथ मित्रता स्थापित कर ली थी।

आगे चल कर रंगमंडप में धनुर्विद्या के प्रदर्शन के समय उसने फिर मित्रता का प्रस्ताव रख कर अपने संबंधों को और सुदृढ़ कर लिया।

- #महाभारत

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जब युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि -

#क्षत्रिय, #वैश्य या #शूद्र किस उपाय से ब्राह्मण बन सकते हैं?

तो पितामह ने उन्हें मतंग की कथा सुनाई।

मतंग का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और वह ब्राह्मण ही जान जाते थे।

एक दिन उन्हें पता चला कि वह ब्राह्मण नहीं, चण्डाल हैं क्योंकि उनकी ब्राह्मणी माता ने चोरी छुपे एक नाई से संबंध करके उन्हें जन्म दिया है।

अन्त में इन्द्र के समझाने पर उन्होंने ब्राह्मण बनने की इच्छा छोड़ कर देवता बनना स्वीकार कर लिया।

तब से वह स्त्रियों के द्वारा छन्दोदेव के रूप में पूजे जाने लगे।

#महाभारत


“यदि कोई व्यक्ति, बिना समझे बूझे, श्रुति या शास्त्रों पर दोष लगाता है, तो उसे ब्रह्मघाती ही समझना चाहिए।”

- भीष्म पितामह

#महाभारत

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“लोग स्वभावतः मैथुन, मांस और मद्य की ओर आकर्षित होते हैं।

इन प्रवृत्तियों को नियंत्रित (और धीमे धीमे निवृत्त) करने के लिए ही विवाह, पशुबलि और सौत्रामणि यज्ञ की व्यवस्था बनाई गई है।”

- #श्रीमद्भागवत

[और स्पष्टीकरण के लिये पं. माधवाचार्य शास्त्री का लेख देखें]

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🙌॥ वारांगनेव नृपनीतिरनेक रुपा: ॥🙌






The yogi remains like a log of wood in a steady posture, in an incomparable manner, not seeing any form whatever, and not speaking or hearing any word.

~Atma Vidya Vilasam




लौह कुंड में हवन या कोई भी देवपूजा नहीं करना
चाहिए।

लौह पात्र मे हवन करने से...
धन पुत्रादि की हानि की संभावना होती है।
अगर हवन कुंड का निर्माण नहीं कर सकते तो
ताम्र पात्र मे ही हवन करना चाहिए।

कई शास्त्रों में बताया गया है जैसे कि निम्न श्लोको से भी
प्रमाणित होता है

अपि ताम्रमयं प्रोक्तं कुण्डमत्र मनीषिभिः ।" (स्मृतिसार
ग्रंथ)
कुंडस्थण्डिलासंभवे पक्वमृण्मयपात्रकुंडाकृति रहितताम्रादिपात्रमृण्मयपात्राणामप्यनुज्ञा गम्यते ।
( संस्कार रत्न माला)

न चुल्ल्यां नायसे पात्रे न भूमौ न च खर्परे।।
(देवी भागवत )

कुंडाभावे बालुकाभीः
अर्थात: कुंड के अभाव से बालुका बिछाकर उस पर
कर सकते!

> > इसलिये भूलकर भी लौह कुंड मे हवन न करें !

ताम्रमय कुंड भी यज्ञ में वर्ज्य जानें क्योंकि यज्ञो के लिए
किसीभी ग्रंथमें कुंड मंडप विषयक ताम्रकुंड का उल्लेख
नहीं हैं!
>>>>>>वैश्वदेवके कार्यतक ही मर्यादित हैं!


Everyone ask how to do duty 100% perfect & that too without attachment as stated in Gita.-निष्काम कर्म .

Sri Mahasannidhanam gives Modern day example of a Cashier in bank , who doesn’t do mistake & is completely aware that the money he is counting doesn’t belong to him.




परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
(हितोपदेश: 1.77)

पीठ पीछे कार्य बिगाड़ने वाले और मुख पर मीठी-मीठी बातें करने वाले मित्रको, मुखपर दूध वाले विषके घड़े के समान(अर्थात घड़े के ऊपर ऊपर तो दूध लगा हुआ है, किंतु भीतर विष भर रखा है) ऐसे मित्र को सर्वथा त्याग देना चाहिये।


आईये कुछ बातों पर विचार करें।सबसे पहले तो नित्यानुष्ठान ना करने के लिये भगवन्नाम का ओट लेना बहुत बड़ा अपराध है। जिन भगवानका नाम हम रट रहें है क्या उनकी आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म नहीं? भगवान स्वयं कह रहें हैं -

श्रुतिस्स्मृति: ममैवाज्ञा यस्तामुल्लङ्घ्य वर्तते |
आज्ञाच्छेदी ममद्रोही मद्भक्तोsपि न वैष्णव: || (विष्णुधर्म)
(श्रुति और स्मृति यह मेरे आदेश है जो इसका पालन नहीं करते हैं वे विश्वासघाती - मेरे द्रोही हैं। चाहे वें मेरी भक्ति करें तो भी उनको वैष्णव नहीं मानना चाहिये।)

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥ (रामचरितमानस)

और तो और प्रपन्न-शरणागत के लिये भगवदाज्ञा का पालन करना ही मुख्य हैं - अग्या सम न सुसाहिब सेवा (रामचरितमानस)। भगवदाज्ञा का पालन करना यानि उनके अनुकूल रहना और प्रपन्न के लिये तो सर्वप्रथम निर्दिष्ट यहीं है - आनुकूलस्य संकल्पः (अहिर्बुधन्य संहिता)।

दुसरी बात जो कि गोस्वामीपाद श्रीतुलसीदासजी स्वयं कह रहें हैं -

नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गये कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥(दोहावली)

भगवान श्रीरामका नाम अंक है और सब साधन शून्य (०) हैं। अंक न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं आता, परंतु शून्य के पहले अंक आने पर वे दस गुने हो जाते हैं, अर्थात राम-नाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दस गुना अधिक लाभदायक हो जाते हैं, परंतु राम-नाम के बिना जो साधन होता है वह किसी भी तरह का फल प्रदान नहीं करता।
इससे यह स्पष्ट हैं कि श्रीरामनाम के ही परमोपासक गोस्वामीजी अन्य साधन-कर्मों की उपेक्षा करने के पक्षमें बिल्कुल नहीं हैं। विशेष जानकारी के लिये रामचरितमानसके उत्तरकाण्ड का अध्ययन करें। हाँ गोस्वामीजी निरस कर्मकाण्ड को भगवन्नाम से जोड़कर हमारे सभी कृत्यों को उपासनात्मक बनाने के पक्ष में जो कि गीताचार्य भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कह रहें हैं -
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ भी स्वतःप्राप्त कर्म करते हो, जो खातें हो, जो कुछ श्रौत या स्मार्त यज्ञरूप हवन करते हो, जो कुछ (स्वर्ण,अन्न, घृतादि वस्तु) सत्पात्रोंको दान देते हो और जो कुछ तपका आचरण करते हो वह सब मुझे समर्पित कर दो।)

अब एक और महत्पुर्ण बात पर ध्यान दीजिये। भगवन्नामजप-कीर्तन तब ही सफल है जबतक हमनें नामापराधसे बचकर भगवन्नाम का आश्रय किया। इन दश नामापराधमें इन तीन पर विचार कीजिये -
(१) अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां (वेद-शास्त्र-सन्त आज्ञा का पालन नहीं करना)।
(२) विहितत्यागौ (यह सोचना की नामजप करतें हैं अतः सन्ध्या-पूजन-तर्पण आदि कार्यों का त्याग कर देना)
(३) धर्मान्तरैः साम्यं (भगवन्नामाश्रय को अन्य पूण्यकर्मों के समान मानना तथा तूलना करना। क्योंकि भगवन्नामाश्रय से श्रेष्ठ कोई भी यज्ञ- तीर्थ आदि नहीं हो सकते। इसलिये भगवन्नाम को सर्वोपरी जानकर सन्ध्या-यज्ञादि नित्यानुष्ठान की तुलना करनी ही नहीं चाहिये।)

तो मित्रों सौ बात की एक बात भगवन्नाम का आश्रय लेकर अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों से ना भागें, नियमपूर्वक श्रद्धासहित नित्य कर्मानुष्ठान (सन्ध्यावन्दन, अग्निहोत्र, देवपूजन, वेदादि शास्त्रों क अध्ययन, पितृ तर्पण आदि) करें। भगवन्नाम तो साक्षात भगवान हैं! भगवन्नामसें भगवानकी अनुभूति करें। भक्त-प्रपन्न को तो अपने सभी कार्य भगवत्प्रीत्यर्थ करने चाहिये।

धर्म सम्राट करपात्री स्वामी की जय हो

संभव हो तो श्रीकरपात्री स्वामीजी द्वारा लिखित "संकीर्तन मीमांसा" नामक ग्रन्थ को एकबार अवश्य पढ़ लेंवे।

हमारे अद्वैत वेदांत परंपरा के अनेक ऋषि मुनि पूर्व आचार्य वर्तमान आचार्य से आप बड़े प्रवक्ता हो गए
आप अद्वैत वेदांत के इतने बड़े आचार्य हो गए कि आप कह रहे हैं कि सनातन धर्म कर्मकांड का कोई महत्व नहीं है अब इतने बड़े हो गए

जो व्यक्ति स्वयं स्वयंभू स्वघोषित आचार्य बन बैठा है ना शास्त्रों का ज्ञान है ना धर्म के ज्ञान है और अपने आप को आचार्य बनके सुशोभित हो रही है

आपके इस वीडियो में आप मनुस्मृति और आप्रामाणिक साबित करने का प्रयास कर रहे हैं

जो व्यक्ति स्वयं स्वघोषित आचार्य बना बैठा है
अद्वैत वेदांत के नाम पर पाखंड बनाना बंद करिए ।।

बस कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करें ,।।
धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो।।

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भक्ति मार्ग ,कर्मकांड • में उचित मार्ग कौन है

एकबार काशीजी में एक ब्राह्मणदेवता ने पूज्य श्रीकरपात्री स्वामीजी को प्रणाम करके पुछा -
स्वामीजी! मैं सन्ध्या-यज्ञादि कर्म नहीं करता हूँ बस श्रीरामनाम का जप-कीर्तन एवं रामचरितमानस का मासपारायण पाठ कर लेता हूँ। तो क्या इससे मेरा कल्याण हो जायेगा?

इसपर पूज्य श्रीकरपात्री स्वामीजी ने कहा - यदी आप शुद्रकुल में उत्पन्न हुए होते तो निश्चित आपका कल्याण हो गया होता पर दुर्भाग्य से आपका जन्म ब्राह्मणकुल में हुआ है अतः आपके लिए सन्ध्या-यज्ञादि वैदिक कर्म करना अत्यंत आवश्यक है।

अब आप विचार करें, क्या करपात्री स्वामीजी भगवन्नाम विरोधी है ? क्या उनको नहीं ज्ञात था कि "राम नाम अवलम्बन एकु" का सिद्धांत कलिकाल में मुख्य है?
अरे भाई! जितना रामनाम प्रेमी करपात्री स्वामीजी हुए उतना शायद ही कोई और हुआ होगा। स्वामीजी श्वास-प्रश्वास में सतत रामनाम का जप करते थे, इतना की एकबार जब वे अस्वस्थ होकर कुछ समय तक मूर्छित रहें तो जगने पर उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ कि उनका रामनाम का जप स्थगित हो गया था। तो विचार कीजिए की स्वामीजी ने उस ब्राह्मण को ऐसा क्यों कहा? +


९० के दशक में द्वैतवादी मध्वसम्प्रदाय के विद्वानों द्वारा अद्वैतवादियों को यह चुनौती दी गई कि "कोई हमारे साथ शास्त्रार्थ करे एवं विजयी होकर १ लाख पारितोषिक ले जाए"। काशी के अद्वैतवादी विद्वानों ने यह चुनौती स्वीकार की और कहा कि काशी में शास्त्रार्थ सभा का आयोजन हो, किन्तु काशी में सभा होने का यह विचार आगे न बढ़ सका। अन्त में द्वादशदर्शनाचार्य स्वामी श्रीकाशिकानन्दगिरी जी ने १९९० अप्रैल में मध्वों के गढ़ बंगलुरु में प्रवेश किया एवं स्वामी विद्यामान्य तीर्थ जी को विचारसभा में परास्त किया। इस प्रकार स्वामी करपात्री जी के पश्चात विद्यामान्य जी को परास्त करने वाले वे द्वितीय संंन्यासी बने।

बंगलुरु शास्त्रार्थ के पश्चात अनेक वर्षों तक स्वामी जी का श्री विद्यामान्य तीर्थ जी के साथ लिखित शास्त्रार्थ चला। पूर्व की ही भांति माध्वों द्वारा इस शास्त्रार्थ के परिणाम को मिथ्या सिद्ध करने के प्रयास में अनेकों पुस्तकें लिखी गई। जिनका सम्पूर्ण उत्तर स्वामीकाशिकानंदजी ने दिया।

लिखित शास्त्रार्थ का अन्तिम उत्तर स्वामी काशिकानंद गिरी जी की और से १९९३ में आया,, स्वामी जी ५ वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहे कि विद्यामान्य जी कोई उत्तर दें ,किन्तु माध्वों की और से कोई उत्तर नहीं आया। अन्त में १९९८ में स्वामी जी द्वारा बंगलुरु में हुए शास्त्रार्थ एवं अन्य विषयों को जोड़कर यह "अद्वैत विजय वैजयन्ती" ग्रन्थ प्रकाशित किया गया।

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