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मैं क्या करूं तेरे इन रहम-ओ-करम
का अब ख़ुदा

मुझे कोई नज़र नहीं आता दूरों-दराज
तक अब कोई नक्श मेरे सिवा

~S.🍁akshi


तुम इज़ाफा करते रहो यूं ही
अपने जूठ में.....।

देखना एक रोज़ हम तुम्हें अपना
सच कह जायेंगे.....।

~S.🍁akshi


ज़ाहिर अल्फाजों सी खामोशी हो जिसकी

भला उसे ही कुछ कहने की ज़रूरत है क्या ?

~S.🍁akshi


वो दर-ख़ुर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब का हकदार
तो था ही आज़....।।

उसने हर ज़र्फ़ में उसे अल्फाज़-ए-खुदा
लिखा था आज़....।।

~S.🍁akshi

~दर-ख़ुर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब ⭆रोष और
क्रोध के योग्य


सब कुछ बदल जाए और

मैं वैसी ही रहूं ये मुमकिन
है क्या ?

~S.🍁akshi


जाना था तुझे तो चला जाता ना
मुझे गुनहगार कहना ज़रूरी था क्या

मैं मुंतजिर हूं तेरी ये सिर्फ़ मालूम है मुझे
सबको तेरा यार बताना ज़रूरी था क्या

अगर इश्क़ नहीं था मुझसे तो कह देता
भरी महफ़िल में यूं रुसवा करना
ज़रूरी था क्या

बात थी नहीं कुछ तो रिहा कर देता
यूं हर रोज़ क़ैद कर मुझे आईने में
तेरी धुंधली सी तस्वीरें बताना
ज़रूरी था क्या


~S.🍁akshi


शाम का ढलना भी ज़रूरी था
दिन का गुज़रना भी ज़रूरी था

कभी आखों का सर्द होना भी
ज़रूरी था कभी खुशियों से
आंखो का भींग जाना भी
ज़रूरी था ......।

कभी लोगों का बदलना भी
ज़रूरी था तो कभी ख़ुद के
लिए लोगों को बदलना भी
ज़रूरी था......।

कभी ख़ामोश रहना भी ज़रूरी
था तो कभी ख़ामोश अल्फाजों
से लोगों को लहू लुहान करना
भी ज़रूरी था......।

कभी दहलीज़ों में दहलीज़ बन
ठहरना भी ज़रूरी था तो कभी
बनके काफ़िर दहलीज़ छोड़ना
भी ज़रूरी था.....।

कभी ख़ुद में ख़ुद को क़ैद करना
भी ज़रूरी था तो कभी ख़ुद की
रिहाई के लिए लोगों को क़ैद
करना भी ज़रूरी था......।

कभी अपनों की बातें सुनना भी
ज़रूरी था तो कभी अपनों के
लिए अपनों से ही झगड़ना
ज़रूरी था......।

कभी-कभी ज़रूरी था वो सब
कुछ जो उस वक्त खुद से ज़्यादा
ख़ुद के लिए जरूरी था.....।


~S.🍁akshi


नज़र को नज़र में भर के
नज़र में उतर जाना
ख़ुद से....।

बातों ही बातों में कुछ
बातें करके मेरी रातें बन
जाना ख़ुद से.....।

यूं रूठना ख़ुद से और
फ़िर मान जाना
ख़ुद से....।

यूं लिपट के कई रोज़
गुज़र बसर करना और
फ़िर तन्हां छोड़ जाना
ख़ुद से....।

बना के मुझे सबब जीने का
बेवजह कह मुकर जाना
ख़ुद से.....।

मेरी आबादियों में होकर
शामिल मेरी बर्बादियों
की वज़ह बन जाना
ख़ुद से.....।

मेरे जिस्म को आबरू में
भर के मेरे जिस्म का
लिबाज़ ले जाना
ख़ुद से....।

नज़र को नज़र में भर के
यूं ही मेरी नज़र से उतर
जाना ख़ुद से.....।


~S.🍁akshi


Huaa ye ki......।

Ishq ho gya juth
ko such se....।।

Fir Kya tha.....।

Juth Such kahta
Raha....।।

Or such Juth samjhta
Raha.....।।

~S.🍁akshi


कच्चे धागों की क़फ़स से रिहा
छोड़ दिया उन्हें कुछ देर
मैंने आज़.....।

वो सिलवटें लेते हुए हर रोज़
की तरह आज़ भी बार बार
चूम लेते मेरे रुख़सार को
किसी बहाने से.....।

मगर उनकी इस बचकानी
हरकतों पे कुछ कहा नहीं
मैंने आज़.....।

उन्हें मचलने दिया खुली
फिज़ाओं में कुछ
देर यूं हीं.....।

सवर के उन्हें हवाओं संग
बिखर जानें दिया कुछ
देर यूं हीं.......।

बना के पोनी उनकी
उन्हें क़ैद नहीं किया
मैंने आज़......।

छूने दिया अपने रुख़सार को
कुछ देर यूं हीं......।

मेरे झुमकों की लड़ियों में फशके
ख़ुद को तंग करने दिया
कुछ देर यूं हीं....।

हाथों की अंगुलियों में दबा के
बड़ी बेरहमी से कानों के पीछे
उन्हें फंसाया नहीं
मैंने आज़.....।

ये गेशुओं की उलझी हुई लटें
पसंद है मुझे कहा था
किसी ने.....।

उन्हें छोड़ दिया उलझा हुआ
ही आज़ मगर उसे बताया नहीं
मैंने आज़......।


~S.🍁akshi


दाग़दार कर गए मुझे कुछ छींटे
बस तेरे नाम के.....।

शुक्र है मैंने तुझे मुक्कमल
इश्क़ नहीं कहा....।

~S.🍁akshi


N Khushnaseeb Itna Ho jau
Ki Kishmat Ruth Jaye mujhse

Na Badnaseeb Itna Ban Jau
Ki Apne Chut Jaye Mujhse

~S.🍁akshi


🍁मेरा___वहम🍁

क़रीब क़रीब यही वक्त था
शाम का......।

मैं यकीनन तो नहीं कह सकती मगर
लगभग लगभग शाम के 5 बजें
हुए थे......।

और लखनऊ के उस ट्रैफिक में आज़
फ़िर न चाहते हुए हम फस
गए थे .......।

शाम का वक्त था और ऊपर से
आज़ का मौसम भी उल्फतो से भरा हुआ
और ख़ुद में मगरूर सा लेकिन अपनी
अदाओं से सबको लुभाने वाला था.....।

लगभग 15 मिनट बीत चुके थे
रफीक साहब के गाने सुनते सुनते
लेकिन मजाल की हमारी सवारी ज़रा
सी भी हिली हो.......।

मैं उलझ ही रही थी ख़ुद में ख़ुद से की
उन सन्नाटों की ख़ामोशी में एक सहमी
हुई सी आवाज़ मेरे ख़याल को कुछ
देर अपनी ओर खींच के ले गई ......।

रंग गेहुंआ सा कद काठी बिल्कुल मेरी
तरह थी चेहरे से साफ़ लग रहा था कई
दिन हो गया उसे अपनी मजबूरी को ज़िंदा
रखने से ज़्यादा कुछ नसीब नही
हुआ था.......।

बदन में धूल मिट्टी से सना हुआ एक
लिबाज़ था जो उसकी बेबसी और
मज़बूरी को साफ़ साफ़ जाहिर कर
रहा था.......।

एक हाथ में उसने पैन से भरा हुआ
एक बंडल थामा हुआ था
और दूसरे हाथों को उसने एक
काले रंग के धूल मिट्टी से कटे फटे से
कपड़े से ढंका हुआ था......।

वो ठीक मेरे सामने थी और एक सफ़ेद रंग
की बड़ी सी चमचमाती कार के सामने
अपने पैन के बंडल को खुले हुए खिड़की के
दराज से कार में बैठे उस शख़्स की ओर
बढ़ाते हुए बार बार बस यही कह
रही थी......।

साहब बस दश का एक है, लेलो साहब
बस दश का एक है....लेलो साहब
बस दस का एक.........

उसका बस ये कहना था कि मैंने ख़ुद को
झूठे और खोखले से वहम में इस क़दर
डूबा लिया कि मानो अगर मैं उस चमचमाती
कार में बैठे शख़्स की जगह होती तो मैं बिना
एक पल गंवाए हुए उसे उस कार की चाभी
ही थमा देती .......।

मगर फ़िर एक सहमी सी आवाज़ मेरे
बनावटी से भरे ख़याल को तोड़ते हुए
मेरे बिल्कुल क़रीब सुनाई दी......।

नज़र घुमाई तो देखा वो बिल्कुल मेरे बाज़ू
में थी और इस बार भी वो वही सब कह रही
थी जो उसने मेरे हिसाब से उस चमचमाती
गाड़ी में बैठे मगरूर शख़्स से कहा था.....।

बस दस का एक...... लेलो बहेन
बस दस का एक........

उसका बस मुझ-से ये कहना था
कि मैंने एक बनावटी भरा हुआ मज़बूरी
का लिबाज़ डाल दिया अपने चेहरे पे
जिसमें से मेरी खुदगर्ज़ी और बनावटी
पन की चमक साफ़ साफ़ झलक
रही थी.......।

मैंने इस क़दर लपेट रखा था उस खुदगर्ज़ी
से भरे लिबाज़ को अपने चेहरे में की मानो
यहां अगर कोई मज़बूर बेबस और लाचार है
भी तो उसकी स्थिति मुझसे कहीं
ज़्यादा बेहतर है......।

मैंने महसूस किया जब मैं ख़ुद को
बेबस लाचार बनाने की कोशिश में थी
उस दरमियान वो मुझे बस एक टक देखती
रही कुछ देर यूं ही ......।

और फ़िर बिना एक पल गंवाएं उसने
वो पैन से भरा हुआ बंडल और दश बीस
की तीन चार नोट कुछ चिल्लर और काले
रंग का वही धूल मिट्टी से सना लिबाज़
जिसे अब तक उसने अपना एक दूसरा
बाज़ू बनाके अपने कंधो में छिपा रखा था
मेरे हाथो में थमाते हुए बिना कुछ बोले
आगे बढ़ गई......।

मुझे लगा जैसे किसी ने एक ज़ोर दार तमाचा
मारा था मेरे ज़मीर पे जो ओढ़ के लिबाज़
बैठा हुआ था अब तक ख़ामोशी का......।

मैं रोकने उसे उसके पीछे भागी और इस
चक्कर में इस क़दर खो गई की मुझे ख़याल
ही नहीं रहा की कब वो पैसे मेरे जेब से गिर
गए कहीं जो लिए थे मैंने आज़ ही थियेटर में
लगी हुई नई पिक्चर की टिकट
खरीदनें के लिए........।


~S.🍁akshi


दर्द कहूं, दुआ कहूं या फ़िर
वज़ह बताऊं तुम्हें.....।

शफ़क कहूं, तिमिर कहूं
या आंखो का फरेब
बताऊं तुम्हें......।

रातों का सर्द कहूं
दिनों का बुखार कहूं या
फिर बाद-ए-सबा की सुबह
बताऊं तुम्हें......।

ख़्वाब कहूं, ख़याल कहूं
या धुंधली सी तस्वीर
बताऊं तुम्हें......।

इश्क़ का फरेब कहूं या
फरेबों का इश्क़ कहूं
या फ़िर गलती आख़िरी
बताऊं तुम्हें......।

पसंद हो जो इल्ज़ाम तुम्हें
उस नाम से फ़िर मैं
बुलाऊं तुम्हें.....।

~S.🍁akshi




तेरी मुश्किल न बढ़ाऊॅंगा चला जाऊॅंगा
अश्क आँखों में छुपाऊॅंगा चला जाऊॅंगा

अपनी दहलीज़ पे कुछ देर पड़ा रहने दे
जैसे ही होश में आऊॅंगा चला जाऊॅंगा

ख़्वाब लेने कोई आए कि न आए कोई
मैं तो आवाज़ लगाऊॅंगा चला जाऊॅंगा

चंद यादें मुझे बच्चों की तरह प्यारी हैं
उनको सीने से लगाऊँगा चला जाऊँगा

मुद्दतों बाद मैं आया हूँ पुराने घर में
ख़ुद को जी भर के रुलाऊँगा चला जाऊँगा

इस जज़ीरे में ज़ियादा नहीं रहना अब तो
आजकल नाव बनाऊँगा चला जाऊँगा

मौसम-ए-गुल की तरह लौट के आऊँगा 'हसन'
हर तरफ़ फूल खिलाऊँगा चला जाऊँगा


Rishte kaache dhaage mi piroye moti ki trh hote h ;;
Agr unhe shejkr na rkha jaye
To kbhi bhi bikhr skte h!! 😇


अच्छी सूरत को संवरने की जरूरत ही क्या है
सुना है सादगी में भी कयामत की अदा होती है 🌝


पाना और खोना तो किस्मत की बात है,
मगर चाहते रहना तो अपने हाथ में है।
👍👍

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