न जात काम: कामनामुपभोगेन शाम्यति,
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्ध्दते। ( मनु॰ २-९४)
अर्थात् - संसार के भोगों से मनुष्य की तृप्ति नहीं होती, ज्यों-ज्यों भोग भोगता है, तृष्णा अधिक बढ़ती है, जैसे कि अग्नि में धृत डालने से ज्वाला अधिक प्रचण्ड होती है। सो, जो केवल सन्तति के लिए स्त्री से सहवास करते हैं, और गर्भाधान हो जाने पर ब्रह्मचारी रहते हैं; एवं जो पालन-पोषण, शिक्षण कर सकने योग्य दो-चार सन्तानें हो जाने पर फिर ब्रह्मचारी ही रहते हैं, वे देव-तुल्य हैं, उनकी सन्तति भी देवतुल्य तथा आदरणीय होती हैं।
कर्मेन्द्रियों में गुप्तेन्द्रिय सबसे बलवान् है, इस पर विजय पाना अति कठिन है। इसी कारण 'गुप्तेन्द्रिय-संयम' को
ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने में मुख्यता दी गयी है।