ब्रह्मचर्य


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ब्रह्मचर्य ही जीवन है 🙏🏻
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[[ब्रह्मचर्य पालन करना अमृत के समान है और ब्रह्मचर्य का नाश करना जहर के समान है]]

[[मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।*
*क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवद् भज।।*]]

*भावार्थ-* हे भाई! यदि तुम्हें मुक्ति की कामना है तो विषयों को विष के समान समझकर त्याग दो और क्षमा [सहिष्णुता, धैर्य, तितिक्षा], आर्जव [सरलता, विनम्रता, ईमानदारी, निष्कपटता, उदारता], दया, पवित्रता और सत्य का अमृत के समान पान करो। -

(चाणक्यनीति, नवम अध्याय, श्लोक-१, भाष्यकार:- स्वामी जगदीश्वरानंद सरस्वती)




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[[ब्रह्मचर्य की महिमा]]

ब्रह्मचारी समुद्र के समान गम्भीर हो जाता है और इतना तेज धारण करता है कि सर्वसाधारण से ऊॅंचा उठ जाता है। जिस प्रकार पर्वत पर चढ़कर महात्मा पुरुष मर्त्यलोक के निवासियों के मार्ग-दर्शक बनते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मचारी अपने तपोबल से तेजस्वी होकर ऊपर उठता है। तब विद्यारूपी समुद्र में स्नान से तेज धारण किया हुआ ब्रह्मचारी अपने प्रकाश से सर्व-साधारण को अपनी ओर खींचता हुआ उनकी शुद्धि का साधन बनता है।


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[[ब्रह्मचर्य से मन एकाग्र होता है और एकाग्र मन वाला ही संसार की सच्चाई को समझ सकता है]]
और मनु भगवान् कहते हैं कि (प्राणायामः परं तपः) प्राणायाम ही बड़ा तप है। प्राणों को वश में करने से ही मन वश में आता है और तब इन्द्रियाॅं डाॅंवाडोल नहीं होतीं। मन की एकाग्रता से ही संसार का यथार्थ दर्शन होता है। डाॅंंवाडोल मन संसार के वास्तविकता को नहीं समझ सकता। संसार का वास्तविक स्वरूप देखने के लिए निश्चल मन की आवश्यकता है। जब लोक-संग्रह ब्रह्मचारी का परम अधिकार है तो उससे पहले उसे लोक का यथार्थस्वरूप मालूम होना चाहिए। वेद-विद्या की प्राप्ति का फल प्राण-विद्या में प्रवेश और प्राण-विद्या द्वारा प्राणों को वश में करने का फल जगत् के वास्तविक स्वरूप को जानना है।
लोक के वास्तविक स्वरूप का ध्यान किसलिए चाहिए? इसलिए कि उस लोक के ठीक (लोकृ-दर्शने) दर्शन हो सकें। रूप से विमोहित होकर मनुष्य व्याकुल पागलों की भाॅंति उसी की ओर टिकटिकी लगा देते हैं। परन्तु प्राणों को वश में करके ब्रह्मचारी विचार करता है-क्या अस्थि, मज्जा और चर्मादि की यह चमक है जो सुन्दर मानवी चेहरे को दहका रही है? क्या जड़ प्राकृतिक जिह्वा के अन्दर वह लालित्य है जो सहस्रों को मूर्छित कर देता है? क्या पत्थर, पानी और पोल के अन्दर वह घटा छिपी हुई है जो हिमशिला की ओर स्वाभावतः मनुष्यों की बाहरी ऑंखों को आकर्षित कर रही है? प्राण के विजेता ब्रह्मचारी की अन्दर की ऑंखें खुल जाती हैं और वह देखता है की जड़ में सौन्दर्य नहीं है। जिस प्रकार चन्द्रादि लोक सूर्य से प्रकाश प्राप्त करके ही प्रकाशित होते हैं, इसी प्रकार सारी प्रकृति सौन्दर्य को किसी अन्य उच्च शक्ति से धारण करती है। सारा सौन्दर्य उस प्रभु का है जो सबसे ऊॅंचा स्थित, सब में व्यापक होकर सबको प्रकाश दे रहा है-जो सूर्य लोकों का भी द्योतक तथा देव और ऋषि-महात्माओं के हृदयों का भी प्रकाशक है।
ऐसी निर्मल बुद्धि को लेकर ब्रह्मचारी दीक्षा से व्रत का अधिकारी बनता है तब उसे बाहर के प्रलोभन अपनी और नहीं खींच सकते। मोक्षस्वरूप परमात्मा के अन्दर जब आत्मा स्थित हो गया तब अडोल हो जाता है। यही उसका अपूर्व गर्भ है। जब इस गर्भ में स्थित हुआ तो बाहर की 'सुध-बुध' भूल जाता है। हर मुल्क और हर समय में आदर्श विद्यार्थी उसी को माना जाता रहा है जिसका विद्याप्राप्ति की धुन में बाहरी दुनिया के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। जिसने बालों की दासता, वस्त्रों की दासता, चटोरी जबान की दासता, और गोष्ठी की दासता में समय और शारीरिक बल को नष्ट किया है वह सावित्री माता के गर्भ में कभी गया ही नहीं।
(साभार:- स्वामी श्रद्धानंद ग्रंथावली)


जय श्री राम 🙏🏻🚩


जय श्री राम 🙏🏻🚩


आइए वाल्मीकि रामायण से जाने भगवान श्री राम ईश्वर का ध्यान कैसे करते थे, यदि आपके पास वाल्मीकि रामायण है तो आप ये जानकारी बालकांड 11वें सर्ग में पढ़ सकते हैं, बाकी मैं जानता हूं 99% से ज्यादा हिंदू के घर में रामायण महाभारत होती ही नहीं है और महाभारत की पुस्तक से तो इनकी पिंडी कापती है


प्रभातायां तु शर्वर्या विश्वामित्रो महामुनिः । अभ्यभाषत काकुत्स्थौ शयानौ पर्णसंस्तरे ॥ १॥ कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते । उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमान्हिकम् ॥ २ ॥

अर्थ-प्रभात होने पर विश्वामित्र महामुनि पत्तों के विस्तर पर सोये हुए राम लक्ष्मण से बोले कि हे कौसल्या के सुपुत्र राम ! इस समय तुमको सोना अनुचित है, क्योंकि यह समय प्रातःसन्ध्या करने का है, हे नरशार्दूल ! दैवकर्म-सन्ध्या अग्निहोत्र करो ।।

तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ । स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जपेतुःपरमं जपम् ।। ३ ॥ कृताह्निको महावीर्यो विश्वामित्रं तपोधनम् । अभिवाद्यातिसंहृष्टा गमनायाभितस्थतुः ।। ४ ।।

अर्थ-ऋषि के परम उदार बचन सुन दोनों श्रेष्ठ भाइयों ने स्नानकर आचमन किया और परमजप-गायत्री का जप करके पूर्वाह्निक के कर्म सन्ध्या अग्निहोत्रादि से निवृत्त हो महावीर्य्य तपोधन विश्वामित्र को अभिवादन करके प्रसन्न मन दोनों भाई चलने के लिये सन्मुख खड़े होगये ।।

नमस्ते जी 🚩🙏ओ३म्🚩🙏


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जय श्री राम 🚩
जय श्री कृष्ण 🚩

https://youtu.be/-PoKrhVqPdM?feature=shared


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[ब्रह्मचर्य से मनुष्य पुरुषार्थी बनता है]:-

एक राजा एक ऋषि के पास गया और उससे कहा मेरी कन्या विवाह के योग्य है मैं क्या करूं? हर घड़ी शोकातुर रहता हूं। ऋषि कहते हैं राजन्! किसी पुरुष के साथ इसका विवाह कर दो? राजा कहता है, 'क्या अपुरुष के' साथ भी कन्या का विवाह होता है। यह आपने क्या कहा है?' ऋषि ने कहा, संसार में बहुत से पुरुष वास्तव में पुरुष नहीं होते। वे अपुरुष होते हैं, केवल पुरुष के रूपवाले होते हैं।' मेरे कथन का तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष के अन्दर पुरुषार्थ है उसके साथ विवाह कर दो। यह बात ठीक है कि जो पुरुषार्थ का लाभ करता है वहीं पुरुष है और जिसके अन्दर पुरुषार्थ नहीं है वह पुरुष नहीं है। जो वीर्यहीन है, जिसके शरीर में वीर्य का संचार नहीं है वह पुरुषार्थी नहीं हो सकता और इसलिए न ही कोई काम कर सकता है।
(पुस्तक:- आनंद संग्रह, लेखक:- आर्य जगत् के तपोनिष्ठ वीतराग सन्यासी पूज्य स्वामी सर्वदानंद जी)




सत्यार्थ प्रकाश dan repost
माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़कर जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करें, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करें कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तमगुणयुक्त हो। -(सत्यार्थ प्रकाश द्वितीय समुल्लास)


आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च ।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः ॥
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् ॥

आलस्य, नशा करना - मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर-उधर की अण्डबण्ड बातें करना, जड़ता-कभी पढ़ना कभी न पढ़ना, अभिमान और लोभ-लालच ये सात (७) विद्यार्थियों के लिये विद्या के विरोधी दोष हैं। क्योंकि जिसको सुख-चैन करने की इच्छा है, उसको विद्या कहां, और जिसका चित्त विद्या ग्रहण करने-कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख-चैन कहां? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़े, और विद्यार्थी विषयसुख से अवश्य अलग रहें। नहीं तो परमधर्म्म रूप विद्या का पढ़ना पढ़ाना कभी नहीं हो सकेगा ॥




आप सब सोचते होंगे की हम बार - बार क्यों ब्रह्मचर्य नाश के नुकसान भेजते रहते हैं

इसका कारण है की जो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं उन्हें प्रतिदिन ब्रह्मचर्य पालन करने के फायदे और नाश करने के नुकसान पर चिंतन करना चाहिए

केवल ब्रह्मचर्य ही नही आप किसी भी बुरी आदत को छोड़ने के लिए यह नियम अपना सकते हैं


कोई प्रशंसा करे या निंदा... दोनो ही अच्छा है क्योकि "प्रशंसा" प्रेरणा देती है,, और "निंदा" सावधान होने का अवसर..




प्राचीन वैदिक सैद्धांतिक ज्ञान📚 dan repost
प्र. १०२. जीव की परम उन्नति, सफलता क्या है ?

उत्तर : जीवात्मा की परम उन्नति आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करके परम शान्तिदायक मोक्ष को प्राप्त करना है ।

@vaidic_gyan


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भावार्थ:- जो माता-पिता अपने सन्तानों के विद्या-रूपी जन्म को ब्रह्मचर्य के अनुक्रम से बढ़ाते हैं, वे अपने सन्तानों को दीर्घायु, बलिष्ठ और सुशील बनाकर नित्य प्रसन्न रहते हैं।

-(ऋषिदयानन्दवेदभाष्य ऋ० १.१५५.५)




संसार के समस्त महत्वपूर्ण और हितकारी विचार ब्रह्मचर्य से पैदा होते हैं।

20 ta oxirgi post ko‘rsatilgan.